२९ जून मेरे जीवन में अबतक २७ बार आ चुका है। शुरू के ४-५ साल छोड़ दें तो हर लम्हा मेरे जेहन में विद्यमान है। चूँकि मेरा जन्म एक गरीब परिवार में हुआ था सो जन्म दिन का कोई खास मतलब नही हुआ करता था। पापा कहते थे कि आज संतोष का जन्मदिन है, कुछ मीठा बनाओ। माँ को तो बस मीठा खाने का बहाना चाहिए था। शाम को खीर और पुडी बनता और मेरा जन्दीन सेलेब्रेट कर दिया जाता। एक बार की बात हिया। मुझे ५ दिनों से बुखार था। डॉक्टर साहब की मीठी दवाई और नथुनी दादा का लौंग सब कुछ ताबड़तोड़ दिया जा रहा था। इसी बीच २९ जून भी आया और चला गया। पापा को ख्याल भी न रहा। माँ को याद तो था लेकिन चूँकि मैं बीमार था इसलिए उन्होंने जिक्र तक न किया। पापा को २९ जुलाई को याद आया कि मेरा जन्मदिन बीत गया। इसका फायदा मुझे मिला। पापा ने मुझे और मेरे भइया को चिरियाघर दिखाने का वडा किया। ३ अगस्त कि तारिख तय की गई।
सुबह सुबह उठकर पापा की साईकिल को धोने में मैंने भइया की मदद की। कडुआ तेल लगा उसको चमचम दिखने लायक बनाया। घंटी ख़राब थी सो भइया ने कहा कि तुम घंटी बन जाओ और जब मैं तुम्हारे कान ऐन्ठुन्गा तो पी पी या बगल हो जाइये की आवाज़ निकलना। मैं छोटा था इसलिए मैंने कहा पापा ने मेरे जन्मदिन के कारण ही पापा ने चिरियाघर दिखाने को कहा है और मैं ही घंटी क्यों बनूँ? घंटी तो आपको ही बनना पड़ेगा। ठीक १० बजे पापा नहाकर आए और खाना खाने के बाद चलने को कहा। एक मिनट में पैंट कुरता पहन हम दोनों भाई साईकिल पर स्वर हो गए। मैं पहले से ही चौकन्ना था इसलिए भइया के पीछे बैठा। जहाँ कही भीड़ देखता बस भइया का कान ऐंठता और एक तोतली आवाज़ निकलती बदल हो जाइये भाई साहेब। पापा और मैं, हम दोनों खूब हँसते। दिन भर कभी पापा के गोद में कभी भइया के कंधे पर चढ़ घूमना देर से ही सही मेरे लिए सबसे बड़ा तोहफा था।
आज जब मैं इतना बड़ा हो गया हूँ की अपना जन्मदिन ख़ुद मन सकूँ लेकिन पापा की वही मीठा और माँ की खीर बनने की बेचैनी के आगे केक फीका लगता है। काश की मैं पापा और माँ को वह सब कुछ दे सकता जो उन्होंने मुझे दिया है।
आँख भर उठती है जब मैं अपने इनदोनों इश्वर को देखता हूँ। कबतक मेरा जन्मदिन मनाएंगे ये? दिल की बस एक ही इच्छा है जब तक जिऊँ मैं अपने माँ और पापा का संतोष ही बनकर रहूँ और नवल दूर दूर तक नज़र न आए।
Monday, 30 June 2008
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