Wednesday 24 September 2008

सपनों का यथार्थ - 2

अपने पिछले पोस्ट में मैने आपसे जो वादा किया था, उसकी पुर्ति हेतु मैंने अपने सपनों को कलमबद्ध करने की कोशिश की है। बिना किसी वैज्ञानिक या अवैज्ञानिक तकनीक का इस्तेमाल किये मैने प्रयत्न किया है कि इसे मूल स्वरुप में ही आपके समक्ष प्रस्तुत करुं। दिनांक 23 सितंबर 2008 को रोज की तरह औफ़िस से निकल रास्ते में मित्रों के साथ देश और राजनीति की बातें करते हुए करीब 8 या सवा आठ बजे घर पहुंचा था। थकावट के कारण आंख़ें मेरा साथ नहीं दे पा रही थीं। जैसे ही पत्नी द्वारा बनायी कड़क चाय मिली तब जाकर दिल को अहसास हुआ कि मैं अपने औफ़िस या मोटरसाइकिल पर नहीं बल्कि अपने घर में हुं। ख़ैर ख़ाना ख़ाते-ख़ाते और गप्पें मारते कब 11 बज गया, इसका अनुभव भी न हुआ। मन में अनेक ख़्वाहिशें थीं जिन्हें मैंने आज के लिये रख़ छोंड़ा था, उन्हें मूलस्वरुप में ही रख़ मैने अपने तन और मन को तन्हा छोड़ दिया। ऐसे एक बात आपसे कहना चाहता हुं और ऐसा कोई और है भी नहीं जिससे मैं ये कहने की हिमाकत भी सकता हुं। ख़ैर बात ये है कि मैने दिल में बहुतेरे ख़्वाहिशें दबा रख़ी है और दिन भर उन्हें जिंदा रख़ रात को उनका कत्ल कर देना मेरा शौक ही न ही बल्कि मेरी मजबुरी भी है।
माउंट एवरेस्ट की उंचाईयों से भी उंचे पहाड़ की चोटियां मुझे बड़ी प्यारी लग रही थीं। चारों तरफ़ श्वेत हिम का फ़ैला चादर एक अनोख़ी छटा बिख़ेर रहा था। मैं अकेला एक शिलाख़ड के कोने में दुबका था। मारे ठंढ के मेरे दांत आपस में गुत्थमगुत्थी कर रहे थे और मैं अपने ही जैसी आकृति की छाया को देख़ रहा था। अचानक मेरे पिताजी की कर्कश लेकिन मेरे लिये प्रेरणादायक आवाज ने मुझे उन हिंम पहाड़ियों से दुर कर दिया।
सपने देख़ना और उन्हें लिख़ना मेरे लिये सरल नहीं है लेकिन फ़िर भी मैने जो देख़ा है वह हूबहू आपके समक्ष है। आशा है आप मेरे सपनों को पढ कर अपनी प्रतिक्रिया से अवगत करायेंगे। आपके लिये एक और चीज इस पोस्ट में प्रकाशित कर रहा हुं। यह भारतीय डाक विभाग का सपना है। हम सब मिलकर दुआ करें कि इनका सपना यथार्थ को प्राप्त कर सके।

Monday 22 September 2008

सपनों का यथार्थ

सपनों का यथार्थ
अक्सर हम सपनों और हकीकत की बात करते रहते हैं। स्वयं को व्यवहार कुशल और परिपक्व दिख़ाने के लिये भले ही हम अपने सपनों को स्वयं ही अस्तित्वहीन साबित करते हों, लेकिन वास्तविकता यह है कि हम अपने सपनों के कारण ही जीवित हैं। कदापि यह संभव है कि हम बंद आंख़ों से देख़े सपनों को मष्तिष्क की धमनियों से निकाल उत्सर्जित कर दें और यह घोषणा करने में अपना बड़प्पन दिख़ाते रहें कि हमारे पांव हकीकत के धरातल पर ही रहते हैं। लेकिन ऐसा कोई प्रयास सिर्फ़ कृत्रिमता का ही प्रदर्शन करता है।
अमीर-गरीब, हिंदु-मुस्लिम, धर्मी- अधर्मी, रक्षक-भक्षक सभी सपने देख़ते हैं। कोई दिन में सपने देख़ता है तो कोई रात में। दुनिया का शायद ही कोई मनुष्य होगा जो सपने नही देख़ता। जानवरों की बात मैं नहीं कर सकता क्योंकि मैं उनके जैसा नहीं। मैं तो उनमें से हुं जो नियमित अंतराल पर देख़ते हैं। ऐसे लोगों में सबसे बड़ा अवगुण यह होता है कि ये अपने सपनों को हमेशा ताजा रख़ते हैं। कभी रद्दी कागज तो कभी पर्स में पड़े नोटों पर सपनों को लिख़कर हमेशा अपने पास रख़ते हैं। ऐसे इसका एक फ़ायदा भी होता है। गृह लक्ष्मी यानि पत्नियां नोट निकालने से हिचकती भी हैं।
सपनों का यथार्थ सुनने में बड़ा अटपटा लगता है लेकिन एक हकीकत है कि हर सपने के पीछे एक साक्ष्य युक्त कारण होता है जिसे हम गाहे-बेगाहे नजरअंदाज करते रहते हैं। सपनों के बारे में आपको और भी बहुत कुछ बताना चाहता हुं, लेकिन अपने अगले पोस्ट में। तब तक सपने देख़ें और उनके यथार्थ को जानें।