चलो भाइयों, सरकार ने तीन साल पूरे कर लिये हैं। समाचार पत्रों में प्रकाशित रग-बिरंगे विज्ञापनों ने सरकार नामक संस्था की प्रामानिकता साबित हो गयी है। झुठे आंकड़ों से जनता का मन बहल चुका है। जनता सुशासन नामक चटनी चाट चाट कर अपना पेट भर रही है। सत्ताधारी नेता डोसा और मलाई ख़ा रहे हैं। विपक्षी नेता भी एड़ी चोटी का जोर लगाये बैठे हैं। सुना है इनलोगों ने भी कोई रिपोर्ट कार्ड जारी किया है जिसमे नीतिश को राक्षस के रुप मे दिख़ाया गया है। सूचना एवं जनसंपर्क के अधिकारी अपने-अपने जेबों का वजन मन ही मन तौल रहे हैं। बजनिया यानि पत्रकार नीतिश की मालदार पार्टी से गरमागरम गोश्त और लिफ़ाफ़े लेकर लौट चुके हैं। टीवी स्क्रीनों पर कभी उनके नाम तो कभी किसी विपक्षी नेता का नाम बार-बार फ़्लैश किया जा रहा है।
बिहार की जनता अब क्या करे? वह तो बिना पेंदी के लोटा के कहावत को अक्षरशः साबित कर रहे मीडिया वालों के करतब देख़ कर तालियां बजाने को कृत्संकल्पित है। लेकिन प्रश्न यह उठता है कि क्या ये दोगले नेता और दोगली मींडिया वाले पूरे बिहार का प्रतिनिधित्व करने के काबिल हैं। आख़िर क्यों हम ऐसे प्रतिनिधि चुनते हैं जो हमारी ही रोटी खाकर हमसे हमारी रोटी छीनते हैं। हम ऐसे पत्रों को क्यों पढते है जिनके कारिन्दे चंद पैसे के लिये अपना जमीर तो क्या अपनी मां- बहन और बेटी को भी बेच दें। लानत है हम पर जो हम यह सब करते हैं। इसे मेरा पुर्वाग्रह न समझें, यह मात्र बेचैनी है जो अपनी आंख़ों से देख़ने के बाद भी उसे दुनिया के सामने ला नहीं सकता। यही कारण है कि मुझे इस ब्लौग का सहारा लेना पड़ा। वर्ना इस नेताओं और मीडिया वालों के काले करतुत का भंडाफ़ोड़ अवश्य कर देता जैसा मैने मनोज तिवारी का किया था।
Monday, 24 November 2008
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