Friday, 29 August 2008

कोसी का प्रकोप

हर शब्द चीख़ता है

जब बिलख़-बिलख़ रोते हैं बच्चे,
बेचारी मातायें आंख़ों से नीर बहाती हैं,
अगाध पानी के बल पर जब,
नदियां जीवन को जीवन से दुर ले जाती हैं,
हर मनुष्य जीवन को तरसे,
हर सुहागिन कोसी को गुहराती हैं,
जल सिंधु की गरजती लहरें,
बेजान ठठरियों को दहलाती हैं,
चहुंओर मचता है तीव्र क्रंदन जब,
तब नेताओं के मुख़ पर रौनक आ जाती है।
दुर ख़ड़े पत्रकारों के कैमरे,
जब अख़बारों की शोभा बढाते हैं,
देख़ता हूं जब घोषणाओं का बाढ,
तब मेरी कविता का हर शब्द चीख़ता है।

Thursday, 28 August 2008

कोसी का प्रकोप




कोसी का प्रकोप

बह रहे खेत खलिहान,
जीवन का ख़त्म होना जारी है,
बंद करो दलीलें अपनी,
अभी कोसी का प्रकोप जारी है।

वातानुकूलित कमरे में बैठ,
नेताओं का भाषण जारी है,
मनुष्य मिट चुके अब,
अभी मनुष्यता का मिटना जारी है।

बाढ नहीं महाप्रलय है यह,
सरकार का बयानबाजी जारी है,
आम आदमी राहते को तरस रहे,
अभी हेलीकौप्टर का भ्रमण जारी है।
किसे कहें अब कौन है दोषी,
असहाय लोगों का पलायन जारी है,
कुछ मरे कुछ मर रहे,
अभी दुधमुहें बच्चों का बिलख़ना जारी है।

यह कोई प्रथम अवसर नहीं,
बाढ हर वर्ष यहां जारी है,
लोग मरते हैं तो बेशक मरें,
अभी सरकारी लूट का नाटक जारी है।