जीवन की व्यस्तता और,
अशांत वातावरण से दूर,
कहीं जीवन के उस पार,
चलो मेरे मन अब फिर वहीं,
शून्यता के चिर परिचित राह पर।
समय चल चुका है अब तक,
अनन्त चालें अपनी,
कभी सुख तो कभी दुख,
बाँध रखी हैं इसने,
यहीं तक लक्ष्मण रेखा अपनी,
सुख-दुख का न हो,
नामो-निशां जहाँ मेरे दोस्त,
चलो मेरे मन अब फिर वही,
शून्यता के चिरपरिचित राह पर।
यह कैसी स्वतंत्रता है,
जहाँ चंद साँसों के लिए,
अपना ज़मीर गिरवी रखना पड़ता है,
कैसा है यह विखंडित भूखंड,
जिसे मजबूरी में हमें भी,
अपना वतन कहना पड़ता है,
लोक परलोक की कल्पना से परे,
चलो मेरे मन अब फिर वही,
शून्यता के चिरपरिचित राह पर।
जाति-धर्म जैसे असंख्य,
विद्वेषों से बहुत दूर,
जहाँ न हम अपमानित हों,
और न हमारा अस्तित्व विखंडित हो,
वास करता हो मानव जहाँ,
मानव का रूप धारण कर,
चलो मेरे मन अब फिर वहीं,
शून्यता के चिरपरिचित राह पर।
Thursday, 19 March 2009
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