Monday 4 August 2008

आओ चले हम प्रीत की राह


ख़िली ख़िली हैं वादियां, मधुश्रावण की मदहोशी चहुंओर है,
मन बहका है तेरी प्रीत में, मासुम आंख़ों में छुपा चितचोर है।

Sunday 3 August 2008

हमें संसार नया बनाना है

हमें संसार नया बनाना है

कोमल दुबों पर जमा हो जैसे,
कालिख़ की मोटी परत,
उस पर ओस की बुंदें,
और उनका तेजहीन प्रकाश,
मानवता के नाम पर मनुवाद के,
जंजीरों में जकड़ा है समाज भी वैसे,
सदियों से अतिक्रमित और शोषित,
इंसान के नाम पर महज,
असंख़्य बेजान ठठरियां,
बहता है जिनके नसों में,
लहू की जगह सुख़ी नदियां,
जलता है पेट जैसे,
जलते हैं अनवरत,
ईंट के भटठों में सजीव मुर्दे,
बिना कोई आवाज किये,
और न ही कोई प्रतिरोध किये,
जैसे स्वीकार कर चुके हों,
अपनी निर्जीवता को अपनी नियति मान,
आठों पहर काम करने के बाद भी,
भुख़े पेट सोने की मजबुरी।
कई दशक नहीं,
बीत चुके कई जनम अब तो,
न जाने कितनी पीढियां जन्मीं,
कितनों ने तोड़ा दम,
धर्म औ जाति के पत्थर पर,
अपना ख़ोख़ला सर पटक,
कभी रक्त बहा भी तो,
राज्याभिषेक के काम आया,
और बेजुबानों की आवाज निकली तो,
ढोल मंजीरे के धमाको ने,
फ़ाड़ रख़े थे समाज के कानों के परदे।
कितने शासक आये,
कुछ ने चलाये सिक्के,
कुछ ने छपवाये अपना इतिहास,
और कुछ को इतिहास ने बनाया,
ग्रास अपना,
और फ़िर वह दिन भी आया,
जब अपनी ही धरती,
परायी हो गयी,
लोग वही रहे,
समय ने भी अपना रुप दिख़ाया,
लेकिन फ़िर भी हम शोषित,
दासत्व की परिधि में
मनुवाद की काल कोठरी में,
आजीवन मरते रहे,
कभी कोशिश भी की,
अपनी नाक बंद रख़,
जिह्वाविहीन मुख़ से सांस लेने की,
हरदम अपनी सांसों की बदबु को ही,
हमने वापस पाया,
समय चलता रहा अपनी चाल,
उन्होने भी जारी रख़ा अपना दमन चक्र,
और हम भी जीबित रहे,
अपनी लाशों को अपने ही पीठ पर लाद,
इस आस मे,
कहीं तो मिले वह जमीन,
जहां बना सके और
सजा सके सुख़ी लकड़ियों की चिता
और ढुंढते रहे वह गंगा,
जो हमारी अस्थियों को,
स्बीकार कर तृप्त कर सके,
हमारी आत्माओं को।
फ़िर अचानक एक दिन,
घोड़ों की हिनहिनाहट,
तोपों की गड़गड़ाहट,
गोलियों की बौछारों ने,
तोड़ा हमारी चिरनिद्रा,
हम जागे और सचेत हुए,
इतिहास में पहली बार,
जब ख़ोला हमने आंख़ें अपनी,
सिवाय अपनों की लाशों के अलावा,
दिख़ाई दिया तो,
मृत आत्माओं के तारणार्थ,
किये जाने वाले यज्ञों के अवशेष,
और तबतक बीत चुका था समय,
समेटा जा चुका था बिसात,
लूट चुकी थी द्रौपदी,
कृष्ण की आंख़ों के सामने,
सिसक रही थी आत्मीयता,
और फ़िर मिला हुक्म हमें,
आज्ञातवास पर जाने का,
आंख़ें नीचे रख़,
अपनी जुबान नहीं ख़ोलने का।
जारी है आज भी,
सदियों से चला आ रहा,
उनका दिया आज्ञातवास,
हम आज भी चिरनिद्रा में हैं,
बिना हिले बिना डुले,
केवल सांस ले सकते हैं,
ताकि हम जीवित रह सकें,
और हमें गिना जा सके,
हम मोहरा बन,
उनके भोग का साधन बन सकें।
आख़िर हमारा अस्तित्व क्या है,
क्या हमारी यही एकमात्र पहचान है?
नहीं, नहीं, कदापि नहीं,
अब हमें अपना भाग्य बदलना है,
मिटा सदियों का अंधेरा,
हमें सुरज का नवनिर्माण करना है।
भले देना पड़े जीवनाहुति हमें,
हमें संसार नया बनाना है।

नवल किशोर कुमार