अपने पिछले पोस्ट में मैने आपसे जो वादा किया था, उसकी पुर्ति हेतु मैंने अपने सपनों को कलमबद्ध करने की कोशिश की है। बिना किसी वैज्ञानिक या अवैज्ञानिक तकनीक का इस्तेमाल किये मैने प्रयत्न किया है कि इसे मूल स्वरुप में ही आपके समक्ष प्रस्तुत करुं। दिनांक 23 सितंबर 2008 को रोज की तरह औफ़िस से निकल रास्ते में मित्रों के साथ देश और राजनीति की बातें करते हुए करीब 8 या सवा आठ बजे घर पहुंचा था। थकावट के कारण आंख़ें मेरा साथ नहीं दे पा रही थीं। जैसे ही पत्नी द्वारा बनायी कड़क चाय मिली तब जाकर दिल को अहसास हुआ कि मैं अपने औफ़िस या मोटरसाइकिल पर नहीं बल्कि अपने घर में हुं। ख़ैर ख़ाना ख़ाते-ख़ाते और गप्पें मारते कब 11 बज गया, इसका अनुभव भी न हुआ। मन में अनेक ख़्वाहिशें थीं जिन्हें मैंने आज के लिये रख़ छोंड़ा था, उन्हें मूलस्वरुप में ही रख़ मैने अपने तन और मन को तन्हा छोड़ दिया। ऐसे एक बात आपसे कहना चाहता हुं और ऐसा कोई और है भी नहीं जिससे मैं ये कहने की हिमाकत भी सकता हुं। ख़ैर बात ये है कि मैने दिल में बहुतेरे ख़्वाहिशें दबा रख़ी है और दिन भर उन्हें जिंदा रख़ रात को उनका कत्ल कर देना मेरा शौक ही न ही बल्कि मेरी मजबुरी भी है।
माउंट एवरेस्ट की उंचाईयों से भी उंचे पहाड़ की चोटियां मुझे बड़ी प्यारी लग रही थीं। चारों तरफ़ श्वेत हिम का फ़ैला चादर एक अनोख़ी छटा बिख़ेर रहा था। मैं अकेला एक शिलाख़ड के कोने में दुबका था। मारे ठंढ के मेरे दांत आपस में गुत्थमगुत्थी कर रहे थे और मैं अपने ही जैसी आकृति की छाया को देख़ रहा था। अचानक मेरे पिताजी की कर्कश लेकिन मेरे लिये प्रेरणादायक आवाज ने मुझे उन हिंम पहाड़ियों से दुर कर दिया।
सपने देख़ना और उन्हें लिख़ना मेरे लिये सरल नहीं है लेकिन फ़िर भी मैने जो देख़ा है वह हूबहू आपके समक्ष है। आशा है आप मेरे सपनों को पढ कर अपनी प्रतिक्रिया से अवगत करायेंगे। आपके लिये एक और चीज इस पोस्ट में प्रकाशित कर रहा हुं। यह भारतीय डाक विभाग का सपना है। हम सब मिलकर दुआ करें कि इनका सपना यथार्थ को प्राप्त कर सके।
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