जब बिलख़-बिलख़ रोते हैं बच्चे,
बेचारी मातायें आंख़ों से नीर बहाती हैं,
अगाध पानी के बल पर जब,
नदियां जीवन को जीवन से दुर ले जाती हैं,
हर मनुष्य जीवन को तरसे,
हर सुहागिन कोसी को गुहराती हैं,
जल सिंधु की गरजती लहरें,
बेजान ठठरियों को दहलाती हैं,
चहुंओर मचता है तीव्र क्रंदन जब,
तब नेताओं के मुख़ पर रौनक आ जाती है।
दुर ख़ड़े पत्रकारों के कैमरे,
जब अख़बारों की शोभा बढाते हैं,
देख़ता हूं जब घोषणाओं का बाढ,
तब मेरी कविता का हर शब्द चीख़ता है।
Friday, 29 August 2008
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