Friday, 5 December 2008

विस्फ़ोटों का दर्द

कल जब अख़बार के,
पहले पन्ने पर देख़ा मैंने,
सूख़ी रक्त की ताजी लकीरें,
पहले तो लगा जैसे,
कोई रक्तपिपासा मेरे ही घर में,
मेरे मना करने के बावजूद,
मुझे घायल करने घुस आया हो।

कुछ जाने पहचाने चेहरे,
मेरे मानस पटल पर,
एक-एक कर उभर कर,
मेरे रक्तवाहिनियों में,
गर्म शीशा प्रवाहित कर रही थीं,
मन क्रोध की हर सीमा,
पार करने को ब्याकुल हो रहा था।
विस्फ़ोटों की गर्जना,
दर्द से चीख़ते लोग,
मशीनगनों की तड़तड़ाहट,
और,
मीडिया की म्धुर आवाजों से,
आतंकियों की कुटीली मुस्कान पर,
नेताओं की चुहलबाजी,
अधिकारियों की बेशर्मी,
दिल को तार-तार कर रहा था।
ग्लोबलाइजेशन की अंधी दौर में,
कृत्रिम देशभक्ति के दंश से,
मरणासन्न होती भारतीयता,
और,
विज्ञापनी बैनर के नीचे,
ब्रांडेड कंपनी का मोमबत्ती जलाते लोग,
विलुप्त हो रहा इंकलाब का जज्बा,
मन को ब्यथित कर रहा था।
काश मैं भी,
किसी आतंकी के किसी गोली से,
वही मर गया होता,
भले ही मेरी लाश पर,
गोलियों के निशान होते,
मगर अपने आंख़ों के सामने,
अपने महान भारत को युं,
आंख़ चुराते न देख़ा होता।

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