Saturday, 6 December 2008

उपरवाले तेरा कोई नाम नहीं लेता

उपरवाले तेरा कोई नाम नहीं लेता

चारों तरफ़ बिख़रे पड़े हैं सजीब लाशों के अवशेष,
कोई मुर्दा इन टुकड़ों को उठाने का नाम नहीं लेता।

जख़्मों से अनवरत बह रहा ख़ून की धार अबतक,
दर्द इतना है कि बदन सिसकने का नाम नहीं लेता।

नासूर बन चुके जख़्मों को कबतक हम सहेजते रहें,
अब तो कोई अपना भी मरहम लगाने का नाम नहीं लेता।

सुना है इस दस्त में एक शहर हुआ करता था,
आलम यह है कि कोई उस बस्ती का नाम नहीं लेता।

कोई गम नहीं कि हम क्यों काफ़िर हो गये,
हमारे शहर में अब उपरवाले तेरा कोई नाम नहीं लेता।

मजहब की आड़ में वे चलाते हैं पीठ पर गोलियां,
उन्हें क्या मालूम कि मरने के बाद उनका कोई नाम नहीं लेता।

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