Monday, 23 March 2009

शून्यता की ओर

बिहार की राजनीति करवट ले रही है। समाजवाद की आग ठंढी होने लगी है और सामाजिक न्याय की अवधारणा दम तोड़ती नजर आ रही है। वर्ष 1974 में संपूर्ण क्रांति आंदोलन के परिणामस्वरुप देश में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार बनी और अल्पायु में ही पदच्युत होने से अपने उद्देश्य को प्राप्त करने में असफ़ल रही। उस समय मोरारजी सरकार के पतन के कई कारण थे लेकिन सबसे अहम कारण था शून्यता की ओर गतिशील राजनीतिक चेतना जिसने सामाजिक न्याय की अवधारणा को ख़ुली चुनौती दी और इस चुनौती का आधार बना राजनीतिक स्वार्थ जो शीघ्र ही ब्यक्तिगत स्वार्थ में तब्दील हो गया। गैर कांग्रेसी सरकार की कमजोरी का सबसे ज्यादा फ़ायदा उठाया कांग्रेस ने और उसने केंद्र की राजनीति में सशक्त वापसी की।
बिहार के अतीत में झांकें तो हम पायेंगे कि बिहार की भूमि राजनीति के लिये सबसे अधिक उर्वरा रही है। इतिहास साक्षी है विश्व के प्रथम लोकतंत्र का जिसका जन्म इसी धरती पर हुआ। कालांतर में ब्राह्मणवादी ब्यवस्था में व्याप्त संकीर्णता ने शोषक और शोषित के बीच ख़ाई को बढाया और नतीजतन सनातन धर्म की पृष्ठ्भूमि पर आधारित बौद्ध धर्म का आगाज हुआ। नये धर्म में समानता की बात कही गयी, परमपिता परमेश्वर की अवधारणा को आडंबर रहित बताने का प्रयास किया गया, शिक्षा को महत्व दिया गया लेकिन ये सारे गुण समाज के उच्च वर्गों को ही प्राप्य थे। नये धर्म ने पुराने धर्म को झकझोरा और नतीजतन पुराने धर्म ने अपने आयाम बदले। फ़िर शुरु हुआ घरवापसी का ख़ेल। कुछ रचनाकारों की कलम ने सदियों से चली आ रही शोषितों की पीड़ा पर मरहम लगाने का कार्य किया लेकिन वे नाकाफ़ी थे। मंदिरों के पट पूर्ण स्वच्छंदता के साथ नहीं ख़ुले। देवताओं पर ख़ास जातियों का वर्चस्व बना रहा। इन रचनाकारों में कबीर और रविदास जैसे रचनाकार भी हुए और उच्च समाज ने इनकी रचनाओं को सुना लेकिन समाज के अन्य कबीरों और रविदासों को पैरों तले रौंदता रहा।
शोषितों का पैरों तले रौंदा जाना जारी रहा। महात्मा गांधी ने धर्म सुधार को स्वतंत्रता संग्राम के लिये आवश्यक माना और शोषितों को हरिजन कहा। इनकी आवाज में दम था सो मंदिरों के पट ख़ुले और हरिजनों को छाती से चिपकाने का ढोंग किया जाने लगा। ख़ैर देश ख़ंडित होकर आजाद हुआ और सत्ता की बागडोर कांग्रेस के हाथों में चली गयी। फ़िर शुरू हुआ लोकतंत्र के चुल्हे में दलितों और शोषितों को जलाकर निज पेट भरने का ख़ेल्। जो पूर्व में अंग्रेजों के तलवे चाटा करते थे राजनीति में आये क्योंकि सत्ता का अनुभव सिर्फ़ उन्हीं के पास था। और समय के साथ ही चिंगारी सुलगने लगी। जेपी के नेतृत्व में इस चिंगारी ने केंद्र के सिंहास्न को जला डाला और उसके बाद का हश्र पूर्व में ही वर्णित है।
संपूर्ण क्रांति के बाद शिक्षाविहीन राजनीतिक चेतना जागृत होने लगी। आरक्षण की आग ने सबको झुलसाया। आनन फ़ानन में मंडल कमीशन को लागू किया गया। हांलाकि आरक्षण से सभी को फ़ायदा हुआ और क्रीमीलेयर की क्रीम ने सवर्णों का अधिपत्य कायम रख़ा।
वर्ष 1990 में बिहार मे श्री लालू प्रसाद का सितारा चमका और ये मुख़्यमंत्री बने। विदित हो कि जेपी के अनन्य शिष्यों में से एक श्री प्रसाद से राज्य की जनता को कई उम्मीदें थीं और श्री प्रसाद ने प्रारंभिक दिनों में इन उम्मीदों को जीवित रख़ा लेकिन चाटुकारों की भीड़ ने इन्हें चारा घोटाले का अभियुक्त बना दिया और नतीजतन ये जेल भी गये। हांलाकि ये जेल पूर्व में भी जाते थे मगर एक राजनीतिक नेता के रुप में। लेकिन इसबार ये अभियुक्त बने। कांग्रेस पर परिवारवाद का आरोप मढने वाले श्री प्रसाद ने परिवारवाद की परिभाषा ही बदल दी और अपनी अनपढ पत्नी को बिहार का मुख़्यमंत्री बना दिया। शोषितों ने इसे भी स्बीकारा लेकिन जब राज्य की राजनीति में सामंतियों की धाक बढने लगी तब पानी नाक के उपर बहने लगा।
इसका फ़ायदा श्री नीतिश कुमार को मिला और करीब 15 वर्षों के लालू राज के बाद मुख़्यमंत्री बने। सत्ता ग्रहण करने के बाद दलित समाज को बांटकर महादलित बना दिया और उनके उत्थान हेतु संकल्प लिया गया। मुसहरों को चूहे पकड़ने का प्रशिक्षन देने की घोषणा इनके महादलित प्रेम का सर्वोत्तम उदारहण हो सकता है। ललन सिंह जैसा शातिर सिपाहसलार उन्हें अपनों से दूर किये जा रहा है ये नीतिश जी को दिख़ाई नहीं दे रहा है क्योंकि इनकी आंख़ों पर सामंती चश्मा लगा।

यह कोई कहानी नहीं है जिसका अंत पूर्व निश्चित हो। यह तो लेख़नि की आवाज है जो तबतक चलती रहेगी जबतक इस तन में रक्तरुपी रोशनाई है। इसलिये शेष अगले अंक में।
नवल किशोर कुमार

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