Tuesday, 28 April 2009


I am not Pinky therefore I cannot smile.
Cjhandan Kumar, A Cucumber Saller Boy from Patna.

Friday, 10 April 2009

आरक्षण और सवर्ण समाज की भेड़चाल

नवल किशोर कुमार

भारतीय चातुर्यवर्णी समाज में सवर्णों का बोलबाला और शूद्रों की हकमारी का इतिहास अत्यंत ही प्राचीन है। जबरदस्ती थोपे गये या युं कहें कि धर्म के नाम पर मानसिक रूप से शोषित शूद्र समाज के उत्थान के बारे में उच्च जाति के लोग कभी सोच ही नहीं सकते। जिस तुलसीदास द्वारा रचित रामचरित मानस का पाठ स्वर्णों के साथ-साथ शूद्र भी करते हैं उसी रामायण में वर्णित है – “पूजिये विप्र सकल गूण हीना, ना हि शूद्र ज्ञान प्रवीणा”। अर्थात, यदि ब्राहम्ण गुणहीन भी है तो वह अराधना करने योग्य है और यदि शूद्र गुणवान भी है तो अपमानित करने योग्य है। ख़ैर वह समाज जहां बचपन से ही यह शिक्षा दी जाती हो कि हम सवर्ण हैं, हमारे संसकार अलग हैं, ऐसे समाज से यह उम्मीद करना कि वे हमारा कल्याण सोचें, ब्यर्थ ही होगा।

आम तौर पर आरक्षण को लेकर लिख़े जाने वाले आलेख़ों में सवर्ण समाज के द्वारा आरक्षण की प्रासंगिकता पर सवालिया निशान लगाया जाता है और यह कहा जाता है कि एक गरीब सवर्ण क्या इस देश का नागरिक नहीं है। वे यह भी कहने से नहीं चुकते कि संविधान द्वारा प्रदत्त समता का अधिकार का उल्लंघन है लेकिन सच्चाई है कि समाज के हाशिये पर रख़ा गया पिछड़ा समाज जिसे पढने की आजादी मिली भी तो अंग्रेजों के कारण जब सितंबर 1857 में तत्कालीन वायसराय ने जाति आधार पर शिक्षण संस्थानों में सदियों से लगे निषेध को समाप्त किया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद संविधान में पिछड़ों को जो सुविधायें दी गयीं तो इसके लिये सवर्ण कहीं से भी जिम्मेवार नहीं कहे जा सकते। हांलाकि बहुतेरे यह कह्ते फ़िरते हैं कि बाबा साहेब को संविधान लिख़ने की जिम्मेवारी देने के पीछे सवर्ण ही थे। लेकिन सच्चाई अत्यंत ही कड़वी है कि बाबा साहेब के अलावा अन्य जितने भी कानूनविद देश में थे वे सारे के सारे कुर्सी से चिपके पड़े थे और उनके अनुसार संविधान किसी काजल की कोठरी से कम नहीं था। उनका मानना था कि अपनों के ख़िलाफ़ कानून बनाकर वे सत्ता पर काबिज नहीं रह सकते सो सारा का सारा बोझ बाबा साहेब के कंधे पर दिया गया।

पिछड़ों के आरक्षण के संबंध मे एक महत्व्पूर्ण मोड़ तब आया जब 1977 में जब कांग्रेस सरकार का पतन हुआ तब सत्ता में आई मोरारजी देसाई की सरकार ने मंडल कमीशन के जिम्मे पिछड़ों के आरक्षण की स्थिति पर अध्ययन कर सुझाव देने की जिम्मेवारी सौंपी। सवर्णों के बारे में एक सच्चाई है कि वे हारते हैं तब हुरते है और जितते हैं तो थुरते हैं। हांलाकि यह सच उपर से दिख़ाई नहीं देता। स्वर्णों ने पिछड़ों की एकता में ऐसी आग लगाई कि मोरारजी देसाई की सरकार गिर गई। इसके बाद सत्ता में आयी कांग्रेसी प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने वर्ष 1980 में मंडल कमीशन द्वारा दिये गये सिफ़ारिशों को ठंढे बस्ते में डाल दिया। कायरता रुपी भेड़चाल के बारे में पिछड़ों को यह बताकर छला गया कि मंडल आयोग की सिफ़ारिशों के लागू होने से देश की स्थिरता को ख़तरा हो सकता है। इन्दिरा गांधी की हत्या के बाद सत्ता में आये देश के युवा प्रधानमंत्री राजीव गांधी से पिछड़ों ने यह अपेक्षा किया था कि वे हकमारी करने की कांग्रेसी नीति को समाप्त कर आरक्षण के मसले को तवज्जो देंगे।

लेकिन यह संभव न हुआ। वर्ष 1989 में जब वी0 पी0 सिंह ने मंडल कमीशन के सिफ़ारिशों की प्रथम किस्त लागू किया तो सवर्णों ने पूरे देश में कत्ले आम मचाया। इसके बावजूद सरकारी नौकरियों में 27 फ़ीसदी लागू हुआ। लेकिन इसके बाद सवर्ण समाज ने न्यायपालिका (जिसमें आज भी सवर्णों का ही बोलबाला है) के माध्यम से क्रीमी लेयर का अवरोध पैदा किया। अब यह तय करना ज़रूरी हो गया है कि क्रीमी लेयर क्या है और कितना कमाने वाला इस तबके में रहेगा। अभी का पैमाना 1993 में तय किया गया है और इसके मुताबिक साढे चार लाख़ सालाना से अधिक कमाने वाले को मलाईदार तबके में रखा जाएगा। 15 साल बाद भी यही आधार मान कर सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया है। यह वह वक्त था, जब नरसिंह राव की सरकार थी और मनमोहन सिंह अपनी अर्थिक उदारीकरण की परिभाषा संसद को समझा रहे थे। उस वक्त आर्थिक विकास की दर 4 फीसदी से ऊपर नहीं बढ रही थी। वर्ल्ड बैंक के नुमांइदे का तमगा झेल रहे मनमोहन सिंह ने वित्त मंत्री के तौर पर ऐसा टर्न अराउंड किया कि देश के बड़े राजनीतिक दल आर्थिक नीतियों पर एकमत हो गए। नतीजतन आज भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर आठ फीसदी से ऊपर है, मगर आरक्षण के लिए मलाईदार तबके की परिभाषा वही पुरानी है। सच्चाई है कि एम्स या आईआईएम में दाखिले और पढ़ाई के लिए आज जितना पैसा लगता है वह इस तबके के वश से बाहर है। क्या बीस हज़ार प्रति माह कमाने वाला आईआईएम की लाखों रुपये की फीस भर सकता है?

बहरहाल आरक्षण की यह नीति किसी साज़िश का शिकार न बन जाए, इसके लिए ज़रूरी है कि क्रीमी लेयर या मलाईदार तबके का दायरा बढाया जाए। जब आप 9 फीसदी विकास दर प्राप्त करने की बात करते हैं और विकसित देश कहलाना चाहते हैं, तो क्रीमी लेयर की सीमा भी कम से कम छह लाख रुपये सालाना होनी चाहिए। भारत में जहां संपत्ति के बंटवारे पर इतनी विविधता है, वहां क्रीमी लेयर तय करना मुश्किल काम होगा। जहां एक बड़ी जनसंख्या की आमदनी खराब मानसून, बाढ़ या सूखा पर निर्भर है, वहां क्रीमी लेयर का क्या काम। क्या उन बच्चों को उस साल आरक्षण नहीं मिलेगा, जिस साल उस इलाके में फसल खराब हो जाएगी? क्या करेंगे जब ढाई लाख कमाने वाला ओबीसी किसान दो साल से सूखे की मार झेल रहा हो?

Sunday, 5 April 2009

बधाई हो राबड़ी जी, बधाई हो

बधाई हो राबड़ी जी, बधाई हो

सूबे के मुख़्यमंत्री श्री नीतिश कुमार और उनके ------- ललन सिंह के बीच रिश्ते को जगजाहिर कर आपने दिख़ा ही दिया कि आप भी अब लालू जी से कम नहीं है। ख़ासकर इस मामले में तो आप लालू जी से भी आगे निकल गई है। कितना अच्छा लगता है न जब हम किसी ऐसे के बारे में सच को दुनिया को बताते हैं। चुनाव आयोग को क्या मालूम कि नीतिश कुमार का पाप का घड़ा भर चुका है।
ख़ैर जब आपने इनके रिश्ते को जगजाहिर कर ही दिया है तो अब मुझे भी लिख़ने का हौसला मिला है। वर्ष 1984-85 में एक गेस्ट हाउस में सभा चल रही थी। राज्य के हर कोने से लोग अपनी-अपनी बात रख़ने को आतुर थे। इस सभा में आपके पति यानि लालू जी भी मौजूद थे। एक दुबला-पतला आदमी एक मायुस लेकिन आत्मविश्वास से लबरेज महिला के साथ आया। इन दोनों को नीतिश कुमार के बगल में ही बैठने को जगह मिली। मीटिंग लगभग दो घंटे तक चली और इसी दौरान एक नये रिश्ते का बीज अंकुरित हो चुका था। इसके बाद सिलसिला शुरु हो गया था लेकिन मामला हाई प्रोफ़ाइल था सो अबतक दबा पड़ा था। बिहार के सारे वरिष्ठ पत्रकार इस लव स्टोरी के बारे में जानते है जिनसे मैंने भी इस प्रेम कहानी के बारे में सुना। सभी जानते हैं कि मंजु जी का निधन को साल भर पहले ही हो गया लेकिन इनका रिश्ता 1985 में मार्च में ही टूट गया था।
ऐसा नहीं है कि लोग आपके पति के बारे में कुछ नहीं जानते। ममता कुलकर्णी से लेकर कांति और ओर झारख़ंड की महिला विधायक के साथ रिश्ते की कहानी सवर्ण मीडिया चटख़ारे ले लेकर सुनती है और औफ़ द माईक सुनाती भी है। आप को बता दूं कि जो ये कहते हैं वे आपके घर में सुबह की चाय भी पीते है और दक्षिणा भी ग्रहण करते हैं।
अब सवाल यह है कि क्या आपके कहने से अर्चना और नीतिश के बीच प्यार कम जायेगा या दोनों अलग हो जायेंगे। लेकिन अच्छा है कि आपने सच को कहा तो चाहे यह अधुरा ही क्यों न हो।

Monday, 23 March 2009

शून्यता की ओर

बिहार की राजनीति करवट ले रही है। समाजवाद की आग ठंढी होने लगी है और सामाजिक न्याय की अवधारणा दम तोड़ती नजर आ रही है। वर्ष 1974 में संपूर्ण क्रांति आंदोलन के परिणामस्वरुप देश में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार बनी और अल्पायु में ही पदच्युत होने से अपने उद्देश्य को प्राप्त करने में असफ़ल रही। उस समय मोरारजी सरकार के पतन के कई कारण थे लेकिन सबसे अहम कारण था शून्यता की ओर गतिशील राजनीतिक चेतना जिसने सामाजिक न्याय की अवधारणा को ख़ुली चुनौती दी और इस चुनौती का आधार बना राजनीतिक स्वार्थ जो शीघ्र ही ब्यक्तिगत स्वार्थ में तब्दील हो गया। गैर कांग्रेसी सरकार की कमजोरी का सबसे ज्यादा फ़ायदा उठाया कांग्रेस ने और उसने केंद्र की राजनीति में सशक्त वापसी की।
बिहार के अतीत में झांकें तो हम पायेंगे कि बिहार की भूमि राजनीति के लिये सबसे अधिक उर्वरा रही है। इतिहास साक्षी है विश्व के प्रथम लोकतंत्र का जिसका जन्म इसी धरती पर हुआ। कालांतर में ब्राह्मणवादी ब्यवस्था में व्याप्त संकीर्णता ने शोषक और शोषित के बीच ख़ाई को बढाया और नतीजतन सनातन धर्म की पृष्ठ्भूमि पर आधारित बौद्ध धर्म का आगाज हुआ। नये धर्म में समानता की बात कही गयी, परमपिता परमेश्वर की अवधारणा को आडंबर रहित बताने का प्रयास किया गया, शिक्षा को महत्व दिया गया लेकिन ये सारे गुण समाज के उच्च वर्गों को ही प्राप्य थे। नये धर्म ने पुराने धर्म को झकझोरा और नतीजतन पुराने धर्म ने अपने आयाम बदले। फ़िर शुरु हुआ घरवापसी का ख़ेल। कुछ रचनाकारों की कलम ने सदियों से चली आ रही शोषितों की पीड़ा पर मरहम लगाने का कार्य किया लेकिन वे नाकाफ़ी थे। मंदिरों के पट पूर्ण स्वच्छंदता के साथ नहीं ख़ुले। देवताओं पर ख़ास जातियों का वर्चस्व बना रहा। इन रचनाकारों में कबीर और रविदास जैसे रचनाकार भी हुए और उच्च समाज ने इनकी रचनाओं को सुना लेकिन समाज के अन्य कबीरों और रविदासों को पैरों तले रौंदता रहा।
शोषितों का पैरों तले रौंदा जाना जारी रहा। महात्मा गांधी ने धर्म सुधार को स्वतंत्रता संग्राम के लिये आवश्यक माना और शोषितों को हरिजन कहा। इनकी आवाज में दम था सो मंदिरों के पट ख़ुले और हरिजनों को छाती से चिपकाने का ढोंग किया जाने लगा। ख़ैर देश ख़ंडित होकर आजाद हुआ और सत्ता की बागडोर कांग्रेस के हाथों में चली गयी। फ़िर शुरू हुआ लोकतंत्र के चुल्हे में दलितों और शोषितों को जलाकर निज पेट भरने का ख़ेल्। जो पूर्व में अंग्रेजों के तलवे चाटा करते थे राजनीति में आये क्योंकि सत्ता का अनुभव सिर्फ़ उन्हीं के पास था। और समय के साथ ही चिंगारी सुलगने लगी। जेपी के नेतृत्व में इस चिंगारी ने केंद्र के सिंहास्न को जला डाला और उसके बाद का हश्र पूर्व में ही वर्णित है।
संपूर्ण क्रांति के बाद शिक्षाविहीन राजनीतिक चेतना जागृत होने लगी। आरक्षण की आग ने सबको झुलसाया। आनन फ़ानन में मंडल कमीशन को लागू किया गया। हांलाकि आरक्षण से सभी को फ़ायदा हुआ और क्रीमीलेयर की क्रीम ने सवर्णों का अधिपत्य कायम रख़ा।
वर्ष 1990 में बिहार मे श्री लालू प्रसाद का सितारा चमका और ये मुख़्यमंत्री बने। विदित हो कि जेपी के अनन्य शिष्यों में से एक श्री प्रसाद से राज्य की जनता को कई उम्मीदें थीं और श्री प्रसाद ने प्रारंभिक दिनों में इन उम्मीदों को जीवित रख़ा लेकिन चाटुकारों की भीड़ ने इन्हें चारा घोटाले का अभियुक्त बना दिया और नतीजतन ये जेल भी गये। हांलाकि ये जेल पूर्व में भी जाते थे मगर एक राजनीतिक नेता के रुप में। लेकिन इसबार ये अभियुक्त बने। कांग्रेस पर परिवारवाद का आरोप मढने वाले श्री प्रसाद ने परिवारवाद की परिभाषा ही बदल दी और अपनी अनपढ पत्नी को बिहार का मुख़्यमंत्री बना दिया। शोषितों ने इसे भी स्बीकारा लेकिन जब राज्य की राजनीति में सामंतियों की धाक बढने लगी तब पानी नाक के उपर बहने लगा।
इसका फ़ायदा श्री नीतिश कुमार को मिला और करीब 15 वर्षों के लालू राज के बाद मुख़्यमंत्री बने। सत्ता ग्रहण करने के बाद दलित समाज को बांटकर महादलित बना दिया और उनके उत्थान हेतु संकल्प लिया गया। मुसहरों को चूहे पकड़ने का प्रशिक्षन देने की घोषणा इनके महादलित प्रेम का सर्वोत्तम उदारहण हो सकता है। ललन सिंह जैसा शातिर सिपाहसलार उन्हें अपनों से दूर किये जा रहा है ये नीतिश जी को दिख़ाई नहीं दे रहा है क्योंकि इनकी आंख़ों पर सामंती चश्मा लगा।

यह कोई कहानी नहीं है जिसका अंत पूर्व निश्चित हो। यह तो लेख़नि की आवाज है जो तबतक चलती रहेगी जबतक इस तन में रक्तरुपी रोशनाई है। इसलिये शेष अगले अंक में।
नवल किशोर कुमार

Thursday, 19 March 2009

शून्यता के चिर परिचित राह पर।

जीवन की व्यस्तता और,
अशांत वातावरण से दूर,
कहीं जीवन के उस पार,
चलो मेरे मन अब फिर वहीं,
शून्यता के चिर परिचित राह पर।

समय चल चुका है अब तक,
अनन्त चालें अपनी,
कभी सुख तो कभी दुख,
बाँध रखी हैं इसने,
यहीं तक लक्ष्मण रेखा अपनी,
सुख-दुख का न हो,
नामो-निशां जहाँ मेरे दोस्त,
चलो मेरे मन अब फिर वही,
शून्यता के चिरपरिचित राह पर।

यह कैसी स्वतंत्रता है,
जहाँ चंद साँसों के लिए,
अपना ज़मीर गिरवी रखना पड़ता है,
कैसा है यह विखंडित भूखंड,
जिसे मजबूरी में हमें भी,
अपना वतन कहना पड़ता है,
लोक परलोक की कल्पना से परे,
चलो मेरे मन अब फिर वही,
शून्यता के चिरपरिचित राह पर।
जाति-धर्म जैसे असंख्य,

विद्वेषों से बहुत दूर,
जहाँ न हम अपमानित हों,
और न हमारा अस्तित्व विखंडित हो,
वास करता हो मानव जहाँ,
मानव का रूप धारण कर,
चलो मेरे मन अब फिर वहीं,
शून्यता के चिरपरिचित राह पर।

Tuesday, 17 February 2009

कुछ धागे

कुछ धागे,
बहुत पतले होते हैं,
जो कभी एक झटके में टूट जाते हैं,
और कभी एक कच्चा धागा,
आजीवन साथ निभाता है।
कुछ धागों में,
कपास के साथ और भी बहुत कुछ,
अदृश्य सा दिख़ने वाला तत्व पाया जाता है,
जिसे लोगों ने गांधी बाबा की,
चरख़ा पर सृजन होने वाली ख़ादी के,
नये अवतार की संज्ञा दे रख़ी है,
सुना है,
अब यह ख़ादी,
कर्ण कवच हो गया है,
और इंद्रदेव की कृपा से,
हमारे नेताओं को हासिल हो गया है,
जिनकी आत्मा,
बाजारों में कौड़ी के भाव बिकती है।
कुछ धागे,
अभी भी बेजान ठठरियों पर,
पारदर्शी होने के बावजूद,
सजीव हैं और सांस लेते हैं,
इनकी छाया में,
हडडियों का ढांचा,
नित दिन अपनी चमक बिख़ेरता है,
पसीने की बदबू,
ख़ुश्बू बन,
तन को महकाती हैं,
और फ़िर यही,
कपास के तुच्छ धागे,
कफ़न बन कर,
जीवन के सूर्यास्त तक,
साथ निभाते हैं,
क्योंकि,
कंकालों के अंदर की आत्मा,
बेमोल सही लेकिन बिकाऊ नहीं है।

Wednesday, 11 February 2009

दिल में कुछ बातें हैं

दिल में कुछ बातें हैं
ज्यों तरंग समूह,
किनारे पर पड़े पत्थरों पर,
बारी-बारी से अपना सर पटक,
वापस अपने राह पर,
शुन्यता में विलीन हो जाते हैं।
अवसरवादिता का कलंक लिये,
मनुष्यता को दागदार कर,
कुछ भावनायें,
स्वयं को स्वंय्प्रभु मान,
आत्मारुपी अमृत कलश,
अकेले ही हड़प लेना चाहते हैं।
अपने यथार्थ से कोसों दूर,
हाशिये पर ख़ड़ा एक मनुष्य,
गोधुलि बेला में,
घोंसलों में लौट रहे ख़ग्वृंदो को सजीव देख़,
वापस लौटना चाहता है,
लेकिन,
दिल में कुछ बातें हैं।