Saturday, 6 December 2008

उपरवाले तेरा कोई नाम नहीं लेता

उपरवाले तेरा कोई नाम नहीं लेता

चारों तरफ़ बिख़रे पड़े हैं सजीब लाशों के अवशेष,
कोई मुर्दा इन टुकड़ों को उठाने का नाम नहीं लेता।

जख़्मों से अनवरत बह रहा ख़ून की धार अबतक,
दर्द इतना है कि बदन सिसकने का नाम नहीं लेता।

नासूर बन चुके जख़्मों को कबतक हम सहेजते रहें,
अब तो कोई अपना भी मरहम लगाने का नाम नहीं लेता।

सुना है इस दस्त में एक शहर हुआ करता था,
आलम यह है कि कोई उस बस्ती का नाम नहीं लेता।

कोई गम नहीं कि हम क्यों काफ़िर हो गये,
हमारे शहर में अब उपरवाले तेरा कोई नाम नहीं लेता।

मजहब की आड़ में वे चलाते हैं पीठ पर गोलियां,
उन्हें क्या मालूम कि मरने के बाद उनका कोई नाम नहीं लेता।

Friday, 5 December 2008

विस्फ़ोटों का दर्द

कल जब अख़बार के,
पहले पन्ने पर देख़ा मैंने,
सूख़ी रक्त की ताजी लकीरें,
पहले तो लगा जैसे,
कोई रक्तपिपासा मेरे ही घर में,
मेरे मना करने के बावजूद,
मुझे घायल करने घुस आया हो।

कुछ जाने पहचाने चेहरे,
मेरे मानस पटल पर,
एक-एक कर उभर कर,
मेरे रक्तवाहिनियों में,
गर्म शीशा प्रवाहित कर रही थीं,
मन क्रोध की हर सीमा,
पार करने को ब्याकुल हो रहा था।
विस्फ़ोटों की गर्जना,
दर्द से चीख़ते लोग,
मशीनगनों की तड़तड़ाहट,
और,
मीडिया की म्धुर आवाजों से,
आतंकियों की कुटीली मुस्कान पर,
नेताओं की चुहलबाजी,
अधिकारियों की बेशर्मी,
दिल को तार-तार कर रहा था।
ग्लोबलाइजेशन की अंधी दौर में,
कृत्रिम देशभक्ति के दंश से,
मरणासन्न होती भारतीयता,
और,
विज्ञापनी बैनर के नीचे,
ब्रांडेड कंपनी का मोमबत्ती जलाते लोग,
विलुप्त हो रहा इंकलाब का जज्बा,
मन को ब्यथित कर रहा था।
काश मैं भी,
किसी आतंकी के किसी गोली से,
वही मर गया होता,
भले ही मेरी लाश पर,
गोलियों के निशान होते,
मगर अपने आंख़ों के सामने,
अपने महान भारत को युं,
आंख़ चुराते न देख़ा होता।

Monday, 24 November 2008

चलो बजनिया लोग, बजाओ सुशासन के नाम का डंका

चलो भाइयों, सरकार ने तीन साल पूरे कर लिये हैं। समाचार पत्रों में प्रकाशित रग-बिरंगे विज्ञापनों ने सरकार नामक संस्था की प्रामानिकता साबित हो गयी है। झुठे आंकड़ों से जनता का मन बहल चुका है। जनता सुशासन नामक चटनी चाट चाट कर अपना पेट भर रही है। सत्ताधारी नेता डोसा और मलाई ख़ा रहे हैं। विपक्षी नेता भी एड़ी चोटी का जोर लगाये बैठे हैं। सुना है इनलोगों ने भी कोई रिपोर्ट कार्ड जारी किया है जिसमे नीतिश को राक्षस के रुप मे दिख़ाया गया है। सूचना एवं जनसंपर्क के अधिकारी अपने-अपने जेबों का वजन मन ही मन तौल रहे हैं। बजनिया यानि पत्रकार नीतिश की मालदार पार्टी से गरमागरम गोश्त और लिफ़ाफ़े लेकर लौट चुके हैं। टीवी स्क्रीनों पर कभी उनके नाम तो कभी किसी विपक्षी नेता का नाम बार-बार फ़्लैश किया जा रहा है।
बिहार की जनता अब क्या करे? वह तो बिना पेंदी के लोटा के कहावत को अक्षरशः साबित कर रहे मीडिया वालों के करतब देख़ कर तालियां बजाने को कृत्संकल्पित है। लेकिन प्रश्न यह उठता है कि क्या ये दोगले नेता और दोगली मींडिया वाले पूरे बिहार का प्रतिनिधित्व करने के काबिल हैं। आख़िर क्यों हम ऐसे प्रतिनिधि चुनते हैं जो हमारी ही रोटी खाकर हमसे हमारी रोटी छीनते हैं। हम ऐसे पत्रों को क्यों पढते है जिनके कारिन्दे चंद पैसे के लिये अपना जमीर तो क्या अपनी मां- बहन और बेटी को भी बेच दें। लानत है हम पर जो हम यह सब करते हैं। इसे मेरा पुर्वाग्रह न समझें, यह मात्र बेचैनी है जो अपनी आंख़ों से देख़ने के बाद भी उसे दुनिया के सामने ला नहीं सकता। यही कारण है कि मुझे इस ब्लौग का सहारा लेना पड़ा। वर्ना इस नेताओं और मीडिया वालों के काले करतुत का भंडाफ़ोड़ अवश्य कर देता जैसा मैने मनोज तिवारी का किया था।

Tuesday, 18 November 2008

सुशासन की आरती

सुशासन की आरती

तीन बरस तक लूटे, जन-जन को जी भर चूसे,
तेरी है बड़ी महानता, जै जै जै जनहंता।

तुम महान, तुम्हारी सुशासन की महिमा अपार,
गरीब मर रहे भुख़ से, हर आदमी पीट रहा कपार।

निर्धन का धन हरने में, तुमको लाज न कोई आता,
मलाईदार डोसा के रसिया, दाल-भात न तुम्को भाता।

कलियुग के दुर्योधन, अपराधियों के तुम संरक्षक,
मारे जा रहे गरीब चहुंओर, आस्तीन के तुम तक्षक।

दलितों के विनाशक, हे महादलित अविष्कारक,
निज स्वार्थ में बांटा समाज, जै जै जै ख़लनायक।

मिटा देंगे दुख़-दर्द सारे, किये थे तुमने कई वादे,
हाय रे सुशासन की पत्री, सब रह गए सादे के सादे।

रोटी छीना गरीबों का, लोगों का रोजगार भी छीना,
देख़ गरीबों का हुजुम, चौड़ा हो जाता है तेरा सीना।

मीडिया के भग्वान तुम, है तेरी अगाध कृपा,
जो सच छुपा जता रहे, सब अपनी अपनी श्रद्धा।

बाढ के तुम निर्माता, तुम कोशी के हत्यारे,
सिवाय बिहार को लूटने के, आता न कोई काम प्यारे।

दरिंदे राज ठाकरे के तुम हो सच्चे उपासक,
युवाओं को जहर दे, बता रहे श्रेष्ठ दर्द निवारक।


सुशासन की यह आरती, जो न कोई नर गावे,
देख़े न मुंह विकास का, केवल भाषण पावे।

बिहारियों के शत्रु, हे सौहार्द के दुशासन,
छीन ली ख़ुशियां लाख़ों की, जै जै जै सुशासन।

नवल किशोर कुमार,
ब्रह्म्पुर, फुलवारीशरीफ, पटना-801505

Wednesday, 29 October 2008

प्रभुनाथ की महिमा

बधाई हो प्रभुनाथ जी, बधाई हो! एक बार फिर यह सत्य हो गया कि "समरथ को नाहिं दोष गुसाईं" आखिर सरकार आपकी है, कोर्ट आपका है तो जाहिर है कि फैसला भी आपका ही हो। दीपावली के शुभ मौके पर शायद ही कोई ऐसी सूझ बूझ की खरीदारी करता है जैसा आपने किया है. रकम की बात तो उल्लेखित नहीं किया जा सकता माल खरा सोना मिला है . दो मासूमों की हत्या के सारे साक्ष्य रहने के बावजूद पैसे के बल पर ही सही आपने न्याय को अपना गुलाम बना ही लिया. इसके लिए आपकी जितनी प्रशंसा की जाय वह कम ही होगी .आपको याद होगा बरसों पहले मैट्रिक में एक पाठ्य पुस्तक हुआ करता था जिसका नाम कहानी संकलन था. उस पुस्तक में एक कहानी थी "नमक का दारोगा". आशा है आपने अवश्य पढ़ा होगा क्यूंकि अनपढ़ तो आप है नहीं और पढ़े लिखे अनपढ़ की कल्पना करना भी व्यर्थ होगा . आपने पढ़ा होगा उस कहानी में एक पात्र था जिसका संबंध सवर्ण समाज से था. ऐसे भी प्रेमचंद हमेशा सवर्ण समाज के स्वर्णमयी इतिहास के ध्वजावाहक रहें है सो इस पर टीका टिप्पणी करना बेकार ही होगा. पंडित आलोपीदीन का चरित्र आप पर ही पूरी तरह सटीक बैठता है .आपको यह एहसास होगा कि आपके अन्दर भी देवत्व के पूरे अंश विद्यमान हैं , यह आपके नाम से सभी सुस्पष्ट है. आप तो देवताओं के भी नाथ हैं सो आपकी महिमा अपरंपार है. आप नित दिन अपने पैरों तले नैतिकता का दमन करें, प्रभुनाथ शब्द कि महत्ता को सत्यापित करें ऐसी हमारी शुभकामना है. एक बात तो सत्य है जैसे बूंद-बूंद तालाब भरता है, वैसे पुण्य की गठरी भी भारी होती जाती है. ख्याल रखियेगा कहीं आपके पुण्य की गठरी इतनी भारी न हो जाये कि आप इसे उठाने में सक्षम ही न हों.खैर आप को इस बार की दीपावली जरुर रास आयेगी और आप जमकर राइफलों से धुएं उडायें और हो सके तो कुछ लोगों को भू लोक के जंजाल से मुक्त करायें ताकि धरती का बोझ कुछ कम हो सके. इसके लिए आपकी सरकार तो आपका आभार मानेगी ही और न्यायपालिका भी आपके गुण गायेगी .

Monday, 29 September 2008

जागो भारत जागो



घर की चाहरदीवारी में अगर सुरंग हो तो,
घुसपैठ को भला रोक सकता है कौन।

शासक बज जायें जब लुटेरे अपने ही देश के,
वतन की दुर्गति को भला रोक सकता है कौन।

बिकने लगे कौड़ी के भाव में चरित्र जब,
देश की बदहाली को भला रोक सकता है कौन।

जिस देश में हों असंख़्य गद्दार भरे,
उस देश के पराजय को भला रोक सकता है कौन।

वोटों के लिये तुष्टिकरण करते हों नेता जहां,
उस लोकतंत्र का पतन भला रोक सकता है कौन।

जलाया जाने लगे तिरंगा जब अपने ही वतन में,
ऐसे में शहीदों का अपमान भला रोक सकता है कौन।

जब कायर राजा के आंख़ों मे हो अफ़सोस के आंसु,
ऐसे में विस्फ़ोटों का सिलसिला भला रोक सकता है कौन।


नवल किशोर कुमार

Wednesday, 24 September 2008

सपनों का यथार्थ - 2

अपने पिछले पोस्ट में मैने आपसे जो वादा किया था, उसकी पुर्ति हेतु मैंने अपने सपनों को कलमबद्ध करने की कोशिश की है। बिना किसी वैज्ञानिक या अवैज्ञानिक तकनीक का इस्तेमाल किये मैने प्रयत्न किया है कि इसे मूल स्वरुप में ही आपके समक्ष प्रस्तुत करुं। दिनांक 23 सितंबर 2008 को रोज की तरह औफ़िस से निकल रास्ते में मित्रों के साथ देश और राजनीति की बातें करते हुए करीब 8 या सवा आठ बजे घर पहुंचा था। थकावट के कारण आंख़ें मेरा साथ नहीं दे पा रही थीं। जैसे ही पत्नी द्वारा बनायी कड़क चाय मिली तब जाकर दिल को अहसास हुआ कि मैं अपने औफ़िस या मोटरसाइकिल पर नहीं बल्कि अपने घर में हुं। ख़ैर ख़ाना ख़ाते-ख़ाते और गप्पें मारते कब 11 बज गया, इसका अनुभव भी न हुआ। मन में अनेक ख़्वाहिशें थीं जिन्हें मैंने आज के लिये रख़ छोंड़ा था, उन्हें मूलस्वरुप में ही रख़ मैने अपने तन और मन को तन्हा छोड़ दिया। ऐसे एक बात आपसे कहना चाहता हुं और ऐसा कोई और है भी नहीं जिससे मैं ये कहने की हिमाकत भी सकता हुं। ख़ैर बात ये है कि मैने दिल में बहुतेरे ख़्वाहिशें दबा रख़ी है और दिन भर उन्हें जिंदा रख़ रात को उनका कत्ल कर देना मेरा शौक ही न ही बल्कि मेरी मजबुरी भी है।
माउंट एवरेस्ट की उंचाईयों से भी उंचे पहाड़ की चोटियां मुझे बड़ी प्यारी लग रही थीं। चारों तरफ़ श्वेत हिम का फ़ैला चादर एक अनोख़ी छटा बिख़ेर रहा था। मैं अकेला एक शिलाख़ड के कोने में दुबका था। मारे ठंढ के मेरे दांत आपस में गुत्थमगुत्थी कर रहे थे और मैं अपने ही जैसी आकृति की छाया को देख़ रहा था। अचानक मेरे पिताजी की कर्कश लेकिन मेरे लिये प्रेरणादायक आवाज ने मुझे उन हिंम पहाड़ियों से दुर कर दिया।
सपने देख़ना और उन्हें लिख़ना मेरे लिये सरल नहीं है लेकिन फ़िर भी मैने जो देख़ा है वह हूबहू आपके समक्ष है। आशा है आप मेरे सपनों को पढ कर अपनी प्रतिक्रिया से अवगत करायेंगे। आपके लिये एक और चीज इस पोस्ट में प्रकाशित कर रहा हुं। यह भारतीय डाक विभाग का सपना है। हम सब मिलकर दुआ करें कि इनका सपना यथार्थ को प्राप्त कर सके।

Monday, 22 September 2008

सपनों का यथार्थ

सपनों का यथार्थ
अक्सर हम सपनों और हकीकत की बात करते रहते हैं। स्वयं को व्यवहार कुशल और परिपक्व दिख़ाने के लिये भले ही हम अपने सपनों को स्वयं ही अस्तित्वहीन साबित करते हों, लेकिन वास्तविकता यह है कि हम अपने सपनों के कारण ही जीवित हैं। कदापि यह संभव है कि हम बंद आंख़ों से देख़े सपनों को मष्तिष्क की धमनियों से निकाल उत्सर्जित कर दें और यह घोषणा करने में अपना बड़प्पन दिख़ाते रहें कि हमारे पांव हकीकत के धरातल पर ही रहते हैं। लेकिन ऐसा कोई प्रयास सिर्फ़ कृत्रिमता का ही प्रदर्शन करता है।
अमीर-गरीब, हिंदु-मुस्लिम, धर्मी- अधर्मी, रक्षक-भक्षक सभी सपने देख़ते हैं। कोई दिन में सपने देख़ता है तो कोई रात में। दुनिया का शायद ही कोई मनुष्य होगा जो सपने नही देख़ता। जानवरों की बात मैं नहीं कर सकता क्योंकि मैं उनके जैसा नहीं। मैं तो उनमें से हुं जो नियमित अंतराल पर देख़ते हैं। ऐसे लोगों में सबसे बड़ा अवगुण यह होता है कि ये अपने सपनों को हमेशा ताजा रख़ते हैं। कभी रद्दी कागज तो कभी पर्स में पड़े नोटों पर सपनों को लिख़कर हमेशा अपने पास रख़ते हैं। ऐसे इसका एक फ़ायदा भी होता है। गृह लक्ष्मी यानि पत्नियां नोट निकालने से हिचकती भी हैं।
सपनों का यथार्थ सुनने में बड़ा अटपटा लगता है लेकिन एक हकीकत है कि हर सपने के पीछे एक साक्ष्य युक्त कारण होता है जिसे हम गाहे-बेगाहे नजरअंदाज करते रहते हैं। सपनों के बारे में आपको और भी बहुत कुछ बताना चाहता हुं, लेकिन अपने अगले पोस्ट में। तब तक सपने देख़ें और उनके यथार्थ को जानें।

Saturday, 13 September 2008

तुम तो कोशी हो

From नवल किशोर कुमार

कितना अच्छा लगता था,
किनारे पर तुम्हारी लहरों को मुस्कराते देख़ना।

जाने क्या हुआ और क्यों हुआ,
एकपल में तुमने बदल दिया,
अपनी ममता का वह स्वरुप,
जब तुम्हारे विस्तृत आंचल में,
निश्चिंत हो हम चैन की सांस लेते थे,
कितना अच्छा लगता था,
किनारे पर तुम्हारी लहरों को उछलते-कूदते देख़ना।


तुम तो कोशी हो,
हम सबकी जीवनदायिनी कोशी,
चहूंओर फ़ैला तुम्हारा ममत्व,
धरती पर जीवन जन्मती थीं,
हरित आंचल में छुप चांद और सुरज,
तुम्हारी शोभा बढाते थे,
कितना अच्छा लगता था,
किनारे पर तुम्हारी लहरों को चमकते देख़ना।

हमें मालूम है पूर्व से ही,
बहुतेरे गलतियां हमने की हैं,
तुम्हारे ममतामयी सीने में,
ऊंचे और विशाल ख़ंजर भोंके हैं हम्ने,
हमें आज भी स्मरण है,
जब पहली बार तुम्हें कैद करने की,
असफ़ल कोशिश की थी हमने,
कितना अच्छा लगता था,
किनारे पर तुम्हारी लहरों को बेख़ौफ़ चलते देख़ना।

नवल किशोर कुमार

Friday, 29 August 2008

कोसी का प्रकोप

हर शब्द चीख़ता है

जब बिलख़-बिलख़ रोते हैं बच्चे,
बेचारी मातायें आंख़ों से नीर बहाती हैं,
अगाध पानी के बल पर जब,
नदियां जीवन को जीवन से दुर ले जाती हैं,
हर मनुष्य जीवन को तरसे,
हर सुहागिन कोसी को गुहराती हैं,
जल सिंधु की गरजती लहरें,
बेजान ठठरियों को दहलाती हैं,
चहुंओर मचता है तीव्र क्रंदन जब,
तब नेताओं के मुख़ पर रौनक आ जाती है।
दुर ख़ड़े पत्रकारों के कैमरे,
जब अख़बारों की शोभा बढाते हैं,
देख़ता हूं जब घोषणाओं का बाढ,
तब मेरी कविता का हर शब्द चीख़ता है।

Thursday, 28 August 2008

कोसी का प्रकोप




कोसी का प्रकोप

बह रहे खेत खलिहान,
जीवन का ख़त्म होना जारी है,
बंद करो दलीलें अपनी,
अभी कोसी का प्रकोप जारी है।

वातानुकूलित कमरे में बैठ,
नेताओं का भाषण जारी है,
मनुष्य मिट चुके अब,
अभी मनुष्यता का मिटना जारी है।

बाढ नहीं महाप्रलय है यह,
सरकार का बयानबाजी जारी है,
आम आदमी राहते को तरस रहे,
अभी हेलीकौप्टर का भ्रमण जारी है।
किसे कहें अब कौन है दोषी,
असहाय लोगों का पलायन जारी है,
कुछ मरे कुछ मर रहे,
अभी दुधमुहें बच्चों का बिलख़ना जारी है।

यह कोई प्रथम अवसर नहीं,
बाढ हर वर्ष यहां जारी है,
लोग मरते हैं तो बेशक मरें,
अभी सरकारी लूट का नाटक जारी है।



Saturday, 23 August 2008

क्यों घबराते हो तुम

क्यों घबराते हो तुम

जिन्दगी जीने के लिये है मेरे यारों,
युं मुसीबतों से क्यों घबराते हो तुम।

माना मुश्किलें अनेक हैं संसार में,
सच्चाई बिकती यहां भरे बाजार में,
फ़ूल ख़िलेंगे एक दिन उजड़े बहार में,
क्यों हाथ थाम बैठे हो इस इंतजार में।


सफ़लता चलकर आएगी पास ख़ुद ही एक दिन,
युं असफ़लताओं से क्यों घबराते हो तुम।


जैसे उगता है सूरज नील गगन में,
दिख़ा अपना स्वरुप डुब जाता भंवर में,
इंसान का भी यही है कर्म इस संसार में,
जन्म लेना, जीना और मरना इस वाजार में।


इस समर के विजेता हो तुम साथियों,
युं क्षणिक संकटों से क्यों घबराते हो तुम।


दे रही दस्तक दूर से मंजिल तेरी ही आस में,
करेगी तुम्हारा ही वरण, वह भी मौन है इसी अहसास में,
कैसे छोड़ सकते हो तुम स्वयं को मधय मझधार में,
एक अकेले तुम ही तो नहीं इस पुरे संसार में।


तोड़ अनिश्च्चितता के बंधन, देख़ो एक बार तुम,
युं स्याह बादलों से क्यों घबराते हो तुम।

उस जीवन का है भला क्या मोल,
जिसकी अपनी कोई पहचान न हो,
हार-हार कर जीतता है विजेता यहां,
वह विजेता नहीं, जिसका कोई आत्मसम्मान न हो।


हार तो महज सीढी है लक्ष्य प्राप्ति का,
युं हार के डर से क्यों घबराते हो तुम।

नवल किशोर कुमार

Monday, 18 August 2008

Shabana Ajami



आदरणीया शबाना जी,
अच्छी अभिनेत्री और एक अच्छा इंसान होने के नाते आप मेरे अभिवादन की हकदार हैं। आपकी इंसानी रिश्तों और जमीनी हकीकत से जुड़ी बाते अच्छी लगती हैं। आप स्वयं एक अदबी और परिपक्व रही हैं। आपने भारत में रह रहे मुसलमानों के बारे में जो कुछ भी कहा है वह निःसंदेह सत्य है, लेकिन आपने इस सत्य को या तो समझा नही या फ़िर बताने की जहमत नहीं उठाई। इससे पहले कि मैं आपको कुछ विशेष बातें बताऊं, मैं आपके सामने कुछ तस्वीरें दिख़ाना चाहता हूं।

उपरोक्त तस्वीरें और तथ्य कुछ कहती हैं। अगर आप ईमानदारी से सुनने की कोशिश करें तो आपको समझ में आयेगा कि आप गलत हैं। इससे ज्यादा और विशेष लिख़ने की मैं जरुरत नहीं समझता, क्योंकि जो ख़ाय गाय का गोश्त, वो कभी न हो हिंदु का दोस्त।

Tuesday, 12 August 2008

जम्मू कश्मीर की आग में झुलसता हिंदुस्तान


जम्मू कश्मीर की आग में झुलसता हिंदुस्तान
प्रदर्शन के दौरान हुए पुलिस फ़ायरिंग में शेख़ अजीज मिर्जा की मौत के बाद उनकी शवयात्रा के दौरान जिस प्रकार पाकिस्तानी झंडा लहराया गया उससे भारत के धर्म निरपेक्षता पर शंका उठना गैर वाजिब नहीं है। जम्मू कश्मीर पिछले एक माह से जल रहा है। पहले अमरनाथ श्राईन बोर्ड को जमीन देना, मुस्लिम संप्रदाय के लोगों द्वारा उसका पुरजोर विरोध स्वरूप हिंसा, गुलाम नबी आजाद सरकार का पतन, अमरनाथ श्राईन बोर्ड को दी गयी जमीन को वापस लेना और फ़िर हिंदु नागरिकों द्वारा विरोध जम्मू कश्मीर का हाले बयां करता है। नपुंसक की तरह व्यवहार करने वाली मनमोहन सरकार के नपुंसक गृहमंत्री शिवराज पाटिल ने मुस्लिम तुष्टिकरण की हर सीमा पार करते हुए जो कुछ भी कहा है उसका वर्णण कर व्यर्थ समय गंवाने से बेहतर है कि हम भारत के समस्त हिंदु एकजुट हो जम्मू में रह रहे अपने भाईयों की आवाज बुलंद कर रहे प्रो0 भीम सिंह के हाथ मज्बुत करें।
कभी कभी आश्चर्य होता है कि जब पाकिस्तान ने करीब 5100 वर्ग किमी जमीन चीन को दे दिया तो यही मुस्लिम और इनके दोगले नेताओं ने चूं तक नहीं की थी और आज हिंदुधर्मियों के कारण करीब 2000 करोड़ तक का राजस्व प्राप्त करने वाली सरकार के नुमाईंदे चंद एकड़ जमीन देने से कतरा रहे हैं। ऐसे देश्द्रोहियों को बीच बाजार में ख़ड़ा कर फ़ांसी दे देना चाहिये ताकि भारत की धर्मनिरपेक्षता की तरफ़ आंख़ उठाने वाले देख़ने की हिम्मत न कर सकें।

Monday, 4 August 2008

आओ चले हम प्रीत की राह


ख़िली ख़िली हैं वादियां, मधुश्रावण की मदहोशी चहुंओर है,
मन बहका है तेरी प्रीत में, मासुम आंख़ों में छुपा चितचोर है।

Sunday, 3 August 2008

हमें संसार नया बनाना है

हमें संसार नया बनाना है

कोमल दुबों पर जमा हो जैसे,
कालिख़ की मोटी परत,
उस पर ओस की बुंदें,
और उनका तेजहीन प्रकाश,
मानवता के नाम पर मनुवाद के,
जंजीरों में जकड़ा है समाज भी वैसे,
सदियों से अतिक्रमित और शोषित,
इंसान के नाम पर महज,
असंख़्य बेजान ठठरियां,
बहता है जिनके नसों में,
लहू की जगह सुख़ी नदियां,
जलता है पेट जैसे,
जलते हैं अनवरत,
ईंट के भटठों में सजीव मुर्दे,
बिना कोई आवाज किये,
और न ही कोई प्रतिरोध किये,
जैसे स्वीकार कर चुके हों,
अपनी निर्जीवता को अपनी नियति मान,
आठों पहर काम करने के बाद भी,
भुख़े पेट सोने की मजबुरी।
कई दशक नहीं,
बीत चुके कई जनम अब तो,
न जाने कितनी पीढियां जन्मीं,
कितनों ने तोड़ा दम,
धर्म औ जाति के पत्थर पर,
अपना ख़ोख़ला सर पटक,
कभी रक्त बहा भी तो,
राज्याभिषेक के काम आया,
और बेजुबानों की आवाज निकली तो,
ढोल मंजीरे के धमाको ने,
फ़ाड़ रख़े थे समाज के कानों के परदे।
कितने शासक आये,
कुछ ने चलाये सिक्के,
कुछ ने छपवाये अपना इतिहास,
और कुछ को इतिहास ने बनाया,
ग्रास अपना,
और फ़िर वह दिन भी आया,
जब अपनी ही धरती,
परायी हो गयी,
लोग वही रहे,
समय ने भी अपना रुप दिख़ाया,
लेकिन फ़िर भी हम शोषित,
दासत्व की परिधि में
मनुवाद की काल कोठरी में,
आजीवन मरते रहे,
कभी कोशिश भी की,
अपनी नाक बंद रख़,
जिह्वाविहीन मुख़ से सांस लेने की,
हरदम अपनी सांसों की बदबु को ही,
हमने वापस पाया,
समय चलता रहा अपनी चाल,
उन्होने भी जारी रख़ा अपना दमन चक्र,
और हम भी जीबित रहे,
अपनी लाशों को अपने ही पीठ पर लाद,
इस आस मे,
कहीं तो मिले वह जमीन,
जहां बना सके और
सजा सके सुख़ी लकड़ियों की चिता
और ढुंढते रहे वह गंगा,
जो हमारी अस्थियों को,
स्बीकार कर तृप्त कर सके,
हमारी आत्माओं को।
फ़िर अचानक एक दिन,
घोड़ों की हिनहिनाहट,
तोपों की गड़गड़ाहट,
गोलियों की बौछारों ने,
तोड़ा हमारी चिरनिद्रा,
हम जागे और सचेत हुए,
इतिहास में पहली बार,
जब ख़ोला हमने आंख़ें अपनी,
सिवाय अपनों की लाशों के अलावा,
दिख़ाई दिया तो,
मृत आत्माओं के तारणार्थ,
किये जाने वाले यज्ञों के अवशेष,
और तबतक बीत चुका था समय,
समेटा जा चुका था बिसात,
लूट चुकी थी द्रौपदी,
कृष्ण की आंख़ों के सामने,
सिसक रही थी आत्मीयता,
और फ़िर मिला हुक्म हमें,
आज्ञातवास पर जाने का,
आंख़ें नीचे रख़,
अपनी जुबान नहीं ख़ोलने का।
जारी है आज भी,
सदियों से चला आ रहा,
उनका दिया आज्ञातवास,
हम आज भी चिरनिद्रा में हैं,
बिना हिले बिना डुले,
केवल सांस ले सकते हैं,
ताकि हम जीवित रह सकें,
और हमें गिना जा सके,
हम मोहरा बन,
उनके भोग का साधन बन सकें।
आख़िर हमारा अस्तित्व क्या है,
क्या हमारी यही एकमात्र पहचान है?
नहीं, नहीं, कदापि नहीं,
अब हमें अपना भाग्य बदलना है,
मिटा सदियों का अंधेरा,
हमें सुरज का नवनिर्माण करना है।
भले देना पड़े जीवनाहुति हमें,
हमें संसार नया बनाना है।

नवल किशोर कुमार

Friday, 18 July 2008

पलकें बिछाये बैठा हुं

दीदार हुआ है जबसे काला तिल तेरे रुख़सार का,
दिल के दरवाजे पर दिल का तोहफ़ा लिये बैठा हुं।
इन बेचैन निगाहों को एक पल भी मयस्सर नहीं,
तुम्हारी राहों में एक नया गुलिस्तां सजाये बैठा हुं।

कल जब किया था इकरार तुम्हारी कातिल नजरों ने,
खुदा की कसम सारी दुनिया की नजर चुराये बैठा हुं।
ऐ मेरी जाने तमन्ना, जीवन की हर सांस तुम्हारी है,
एक तेरी चाहत में सांसों को थामे जमाने से बैठा हुं।

तुम्हारी बाहों में ही है जन्नत मेरी, दोनों जहान की,
खिलेगा चांद मेरे आंगन मे, इसी इंतजार में बैठा हुं।
मासूम दिल के मासूम अरमान बहक न जायें कहीं,
सदियों से अपने अरमानों को जंजीरों में जकड़ बैठा हुं।

ये आग है या तेरा हुस्न, यह तो ख़ुदा ही जानता है,
अपने बज्म के हर शय में आग लगाये बैठा हुं।
गम नहीं कि अब दोजख़ मिले या जन्न्त दीवाने को,
तेरे प्यार में मेरे हबीब जनमों से पलकें बिछाये बैठा हुं।

Wednesday, 16 July 2008

जलजमाव- एक समस्या और कितने जिम्मेदार हैं हम



जलजमाव- एक समस्या और कितने जिम्मेदार हैं हम
वक़्त बीतता है और सभ्यतायें करवट लेती हैं। कभी मन सिहर उठता है विकास के आवरण पर लगी आग को देखकर। कभी मन कहता है बंद कर लें हम आख़ें अपनी ताकि हम वह न देख सके, जिन्हें हम देखना नहीं चाहते। बरसात के दिनों में जलजमाव कोई नयी बात नहीं, लेकिन आज के तकनीकी युग में सिर्फ़ और सिर्फ़ अकुशल प्रबंधन के कारण पटना जलमग्न हो गया है। अख़बारें अपना काम कर रही हैं और जनता चुपचाप अपने ऊपर प्रकृति के प्रकोप या फ़िर बदईंतजामी के कहर को देखने को मजबुर हो गये हैं। घुटनों तक पानी जीवन जीने की इच्छा का गला घोंट रही है।
दिनांक 16/7/08 को महत्वपूर्ण अखबारों ने सरकारी महकमे का सूचना पत्र प्रकाशित किया। इस पत्र में जलजमाव के वास्तविक हालात एवं इसके स्थायी हल सविस्तार बताया गया। बरसात के आंकड़े दिख़ा यह साबित करने की कोशिश की गयी कि सरकार मजबुर है क्योंकि रिकार्ड बारिश होने से ऐसी समस्या आयी है। जिन समाधानों को बताया गया उनमें से अधिसंख़्य पुराने ही हैं। कभी-कभी तो लगता है जैसे इस लोकतांत्रिक तंत्र में सबसे बेवकुफ़ जनता ही है। जब भी कोई घटना होती है शासक वर्ग आंकड़े बाजी का खेल दिखा देता है।


यह सरकार का घटिया मजाक नहीं तो क्या है? अपने पौने तीन साल के कार्यकाल में राज्य सरकार ने एक या दो नहीं बल्कि हजारों दिवास्वप्न दिख़ाये। कभी सेटेलाइट के द्वारा बाढ प्रबंधन का दावा किया गया। कभी पटना को पेरिस बनाने का दम भरा गया। इन सब्जबागों के मुकाबले में हकीकत को देखा जाये तो भले हमें कुछ मिले ना मिले लेकिन नेता और बाबु लोगों के तो वारे न्यारे हो ही जाते हैं। शहरी विकास पर पानी की तरह पैसा बहा चंद लोगों ने अपने लिये गंगा का निर्माण तो कर ही लिया जिसमें आने वाली उनकी सातों पीढियां मजे से गोते लगाते रहेंगी।
इस समस्या का कारण क्या है और उसका निदान क्या, यह सब सरलता से ढुंढा जा सकता है अगर हम निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर ईमानदारी से दे सकें।
(1) क्या हमने पौलीथिन को ना कहा है? अक्सर हम इन पौलीथिन को उनके उपयोग के बाद नालियों में फ़ेंक देते हैं जिसके कारण ये हमारे घर के नालियों से लेकर बड़े नालों में फ़ंसकर जलप्रवाह को बाधित कर देता है।
(2) बरसात के दिनों में जल की बहुत मात्रा नालियों के रास्ते बेकार चली जाती हैं। यदि हम अपने घर के एक हिस्से में बड़ा गडढा ख़ोद दें तो इससे दो फ़ायदे होंगे। पहला तो यह कि बरसात का पानी बेकार नहीं जायेगा और हम अपने जलस्तर को ऊंचा रखने में कामयाब होंगे। इसका दुसरा फ़ायदा यह होगा कि नालों पर दबाव कम होगा। क्या हमने इसके लिये कोई प्रयास किया है?
(3) क्या हमने अपने घर के पास एक पेड़ भी लगाया है?
आइये पहले हम पहल करें और सरकार को एक ऐसी राह दिख़ायें।

Sunday, 13 July 2008

मुसलमानों कुछ तो सीखो हम हिन्दुओ से




यह तस्वीर बिहार की राजधानी पटना के एक छोटे से मुहल्ले बलाम्मिचक निवासी रवि की है। यह खैनी की दूकान चलाता है। इश्वर हो या अल्लाह यह सभी को सामान रूप से मानता है।
हिंदुत्व सौहार्द का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है। इसलिए मुसलमानों सीखो रवि से, दुसरे धर्मों का आदर करना, वरना मिट जाओगे।




Tuesday, 8 July 2008

News From Bihar

बरसात की शुरुआत में,
गडढे बनते तालाब में,
सुशासन सरकार में लोगों का,
चैन से जीना मुहाल देखा,
भइया, मैंने बिहार का समाचार देखा।

माल महाराज का मिर्जा खेले होली,
नीतिश कर रहे अब जनता से ठिठोली,
यु पी ऐ के दिए पैसों पर,
सुशासन का नित नया प्रचार देखा,
भइया, मैंने बिहार का समाचार देखा।

दहशत छाई है सड़कों पर,
अपराधी छुट्टे घूम रहे अब सड़कों पर,
घरों में होता निरीह लोगों का,
क्रूरतम वीभत्स नरसंहार देखा,
भइया, मैंने बिहार का समाचार देखा।

सूरजभान भी गए कानून की भट्ठी में,
फाल्गुनी का पैर तोड़, नरेन्द्र रहे मस्ती में,
जेडीयू की गोद में शिशुवत,
बीजेपी का रोज़ होता प्रलाप देखा,
भइया मैंने बिहार का समाचार देखा।

Monday, 7 July 2008

News From Bihar

वो हमारे शासक हैं, लोकतंत्र की सीढियों से चलकर देश के सीने में छुरा भोंक सहृदयता का अनूठा उदहारण प्रस्तुत करने वाले ये नेता हमारे पालनहार बने हैं। जिन्हें हमने चुना और मान सम्मान दिया, आज वाही हमारे सपनो को तार तार करने में लगे हैं। कांग्रेस अपना सामंतवादी चोला उतारने को तैयार नही, बीजेपी को राम मन्दिर के नाम से फुरसत नही, लेफ्ट को चीन प्रेम के आगे देश की परवाह नही,बसपा को मायावती की मूर्ति लगाने से छुट्टी नही और लालू और मुलायम को मुस्लिम प्रेम से इनकार नही। बिहार के सुशासन बाबु यानि नीतिश कुमार जी को उच्च जाति के लोगों की जी हुजूरी करने से फुरसत नही।
आज दिनांक ७ जुलाई २००८ को बिहार के राजधानी से मात्र १० किलो मीटर दूर कुर्जी मुहम्मद पुर गाँव में ९ लोगों को सामूहिक हत्या कर दी गई। यह कोई पहला मौका नही है जब बिहार में कत्ले आम हुआ। इससे पहले भी अपराधियों ने लोगों का खून पिया है। लेकिन जिस सब्जबाग को दिखाकर नीतिश जी सत्ता में आए वह तो मात्र झूठा ख्वाब ही रह गया। इस सप्ताह में करीब २५० से ज्यादा लोगों की हत्याएं हुई हैं। नीतिश बाबु जनता के प्रति कितने संवेदनशील हैं इसका अंदाज इसीसे लगाया जा सकता है। कुर्जी मुहम्मदपुर की घटना में ५ भूमिहार, ३ यादव और १ दुसाध का मर्डर किया गया। नीतिश जी ने अपने प्रतिनिधि के रूप में एक भूमिहार मंत्री श्री रामाश्य प्रसाद सिंघ को घटनास्थल पर भेजा। आख़िर भूमिहार भूमिहार का ही हो सकता है। यह मंत्री जी ने साबित कर दी। वे सिर्फ़ भूमिहार मृतकों के घर गए और अन्य लोगों को उनके हाल पर छोड़ दिया।
मुझे शर्म आता है के मैं उस राज्य का रहने वाला हूँ जहाँ के शासक ऐसे संवेदनशील मुद्दों पर भी गंभीरता से विचार करने के बजाय लाशों पर राजनीती करते हैं। क्योंकि मैं जानता हूँ के उन्हें तो शर्म आएगी नही क्योंकी वे जिस मिटटी के बने हैं उसमे शर्मिंदगी हैं ही नही।

आखरी पैगाम

बुझा है चिरागे जहाँ मेरे दिल का एक ज़माने से,
कोई तो मेरे महबूब को मेरे मुकाम का पता बता दे।
अपनी कब्र पर बैठ देख रहे राह उनके आने की,
कोई तो मेरे हमराह को मेरा दिले हाल बता दे।

वोक्त जा रहा है लम्हा लम्हा थामे राह अपनी,
कोई तो मेरे लम्हों को मेरे घर का राह दिखा दे।
खामोश जुबान, बंद होती पलकों में हसरते हैं बाकी
कोई तो मेरे दिलदार की वही दिलकश सूरत दिखा दे।

दिल बेजार है, रूह बेचैन है उनके आने की आस में,
कोई तो मेरे आशियाने में फलक का एक कतरा दे दे।
और कितना रोकूँ, ,मैं अपनी टूटती सांसों को,
कोई तो मी बिखरते सपनो को थोड़ा हौसला दे दे।

शेष हैं अभी दिले मासूम की आखरी ख्वाहिशें,
कोई तो मेरे ख्वाहिशों को इनका अंजाम बता दे।
जिस्म हो रहा जिसमे रूह से जुदा अब,
कोई तो मेरे यार तक मेरा पैगाम पहुँचा दे।

Monday, 30 June 2008

जन्मदिन और हम

२९ जून मेरे जीवन में अबतक २७ बार आ चुका है। शुरू के ४-५ साल छोड़ दें तो हर लम्हा मेरे जेहन में विद्यमान है। चूँकि मेरा जन्म एक गरीब परिवार में हुआ था सो जन्म दिन का कोई खास मतलब नही हुआ करता था। पापा कहते थे कि आज संतोष का जन्मदिन है, कुछ मीठा बनाओ। माँ को तो बस मीठा खाने का बहाना चाहिए था। शाम को खीर और पुडी बनता और मेरा जन्दीन सेलेब्रेट कर दिया जाता। एक बार की बात हिया। मुझे ५ दिनों से बुखार था। डॉक्टर साहब की मीठी दवाई और नथुनी दादा का लौंग सब कुछ ताबड़तोड़ दिया जा रहा था। इसी बीच २९ जून भी आया और चला गया। पापा को ख्याल भी न रहा। माँ को याद तो था लेकिन चूँकि मैं बीमार था इसलिए उन्होंने जिक्र तक न किया। पापा को २९ जुलाई को याद आया कि मेरा जन्मदिन बीत गया। इसका फायदा मुझे मिला। पापा ने मुझे और मेरे भइया को चिरियाघर दिखाने का वडा किया। ३ अगस्त कि तारिख तय की गई।
सुबह सुबह उठकर पापा की साईकिल को धोने में मैंने भइया की मदद की। कडुआ तेल लगा उसको चमचम दिखने लायक बनाया। घंटी ख़राब थी सो भइया ने कहा कि तुम घंटी बन जाओ और जब मैं तुम्हारे कान ऐन्ठुन्गा तो पी पी या बगल हो जाइये की आवाज़ निकलना। मैं छोटा था इसलिए मैंने कहा पापा ने मेरे जन्मदिन के कारण ही पापा ने चिरियाघर दिखाने को कहा है और मैं ही घंटी क्यों बनूँ? घंटी तो आपको ही बनना पड़ेगा। ठीक १० बजे पापा नहाकर आए और खाना खाने के बाद चलने को कहा। एक मिनट में पैंट कुरता पहन हम दोनों भाई साईकिल पर स्वर हो गए। मैं पहले से ही चौकन्ना था इसलिए भइया के पीछे बैठा। जहाँ कही भीड़ देखता बस भइया का कान ऐंठता और एक तोतली आवाज़ निकलती बदल हो जाइये भाई साहेब। पापा और मैं, हम दोनों खूब हँसते। दिन भर कभी पापा के गोद में कभी भइया के कंधे पर चढ़ घूमना देर से ही सही मेरे लिए सबसे बड़ा तोहफा था।
आज जब मैं इतना बड़ा हो गया हूँ की अपना जन्मदिन ख़ुद मन सकूँ लेकिन पापा की वही मीठा और माँ की खीर बनने की बेचैनी के आगे केक फीका लगता है। काश की मैं पापा और माँ को वह सब कुछ दे सकता जो उन्होंने मुझे दिया है।
आँख भर उठती है जब मैं अपने इनदोनों इश्वर को देखता हूँ। कबतक मेरा जन्मदिन मनाएंगे ये? दिल की बस एक ही इच्छा है जब तक जिऊँ मैं अपने माँ और पापा का संतोष ही बनकर रहूँ और नवल दूर दूर तक नज़र न आए।

Friday, 27 June 2008

रोटी

करीब सात या सवा सात बज रहा होगा। अन्य दिनों की तरह में अपने कार्यालय से अपने घर जा रहा था। मेरी मोटर साईकिल की हालत ऐसे भी उतनी अच्छी नहीं रहती है। बरसात का पानी पड़ने के बाद तो और भी रूठ जाती है, मानो शिकायत कर रही हो कि यदि तुम मेरा ख्याल नहीं रखोगे तो में तुम्हारा ख्याल क्यों रखूंगी? इससे पहले कि वह और नखरे दिखाती मैंने अपने ब्यक्तित्व का दूसरा रूप दिखाया और उसे चलने को मजबूर कर ही दिया। अपने कार्यालय से निकल जैसे ही में चित्कोहरा पुल के नीचे पहुंचा तो भीड़ देख अपनी स्पीड को कम किया। कोलाहल सुन जिज्ञासा हुई सो गाडी साइड में खडा कर भीड़ के बीच घुस गया। मालूम हुआ कि दो आदमी लड़ रहे थे जिसमे एक आदमी का सर फट गया था। हर तरफ लोगो की भारी भीड़ थी और बिहारी गालियों की बौछार हो रही थी।

बेचैन आत्मा का स्वामी होने से एक फायदा यह होता है कि आप बिना फीस का वकील बन लोगों से सहानुभूति प्राप्त कर पते हैं। ऐसे भी मुफ्त में सम्मान किसे अच्छा नहीं लगता। मै भी अपना बड़प्पन दिखाने हेतु पुरे मामले कि तहकीकात करने लगा। तहकीकात के बाद मालूम हुआ कि सारा झगडा रोटी के लिए हुआ है। गवाह के रूप में जमीन पर रोटी और तरकारी बिखरे पड़े थे। मेरे दिल ने सोचा - कितनी अजीब बात है, हर झगडे के पीछे रोटी ही तो है। अगर हमारे बुश साहेब रोटी के लिए इराक पर हमला कर सकते हैं, पाकिस्तान भारत पर आँखें गुरेर सकता है, प्रचंड राजा को पदच्युत कर सकते हैं, नरेन्द्र मोदी गुजरात में दंगे करवा सकते हैं और हमारे सुशासन बाबु बिहार में पुलिस वालों से हर मोड़ पर जबरन भीख वसुल्वा सकते हैं तो यह गरीब रोटी के लिए एक दुसरे का सर फोड़ते हैं तो क्या गुनाह करते हैं।

यों भी गरीबों की लडाई में अमीरों को मज़ा आता ही है। मुफ्त में मनोरंजन का दूसरा विकल्प नहीं हो सकता। में भी खडा हो स्वयं को तसल्ली दे रहा था कि में अकेला नहीं जो रोटी के लिए लड़ता हूँ। मगर जिस रोटी के लिए में लड़ता हूँ उसके लिए हर गरीब को लड़ना चाहिए भले अमीर हम पर हसते रहें। हम लडेंगे तभी तो जीतेंगे और जीतेंगे तो रोटी पर अपना हक़ जता सकते हैं ताकि हमारे बच्चे भी बढ़ सके......................................

Friday, 2 May 2008

जब निकलेगा जनाजा मेरा

युग बीत गया दिल को टूटे आज मेरा हाल पूछते हो
कत्ल कर मेरे अरमानों का मेरा दिले हाल पूछते हो।

खुदा का शुक्र है मेरे रकीब कि सांसें हैं बाकी अभी
दो बूंद पलकों पर गिरा तुम मेरा फिकरे हाल पूछते हो।

वो भी क्या दिन थे जब हम मिलते थे रोज ख्वाबों मी
बरसता था सावन आंगन मे दिल मे आग जलता था।



तेरे केशुओं के घनी छांव मे गुजरते थे दिन रैन मेरे
मन मे तुम्हारा प्यार और तन मे तूफ़ान उमरता था।

बेवफा बारिश की बूंदे याद दिला मेरा दिल जलाते हो
भरी बरसात मे ही उजाडा था तुमने आशियाना मेरा।

ऐ मेरे गुजरे पल दूर चले जाओ मेरी नजरों से
चले आना फिर कभी जब निकलेगा जनाजा मेरा।




Thursday, 1 May 2008

मजदूरों होश मे आओ

आज की नही है ये बात यारों
ये जुल्मो सितम सदियों पुरानी है।
हमारे गाढे खून से लिखी गई
ये हमारी तुम्हारी कहानी है।

हाथ हमारे निवाला उनका
आख़िर कबतक उन्हें खिलाएंगे हम।
अपने बच्चो का पेट काट
आख़िर कबतक उनकी दुनिया सजायेंगे हम।

बहुत हो चुका धरना औ प्रदर्शन
अब इंकलाब की बारी है।
उठो जागो हे मजदूरों होश मे आओ
यह पुरी दुनिया तुम्हारी है।

करो जयघोष नव्क्रान्ति का
विजय श्री तिलक लगायेगी।
भले शहीद हो जायेंगे हम मगर
इतिहास हमारा सच दोहराएगी।



हॉलैंड सरकार द्वारा जारी पत्र

for confirmation of postal stamp‏
From:
Regering (regering@postbus51.nl)
Sent:
Thursday, April 24, 2008 3:43:19 PM
To:
nawal9334307215@hotmail.com
Dear Mr Nawal Kishor Kumar,Thank you for your e-mail. A postal stamp of the actor Manoj Tiwari has not been issued in the Netherlands.With kind regards, Public Information Officer Ms H. ter LaakPostbus 51 Informatiedienst ----Oorspronkelijk bericht----De oorspronkelijke afzender: nawal9334307215@hotmail.comVerzonden: 24-04-2008, 10:25:01Betreft: Name: Mr nawal kishor kumarOrganisation: brahmpurAddress: brahmpur,phulwari sharif,patna,bihar, 801505 Patna,IndiaTelephone: 09304295773E-mail: nawal9334307215@hotmail.comAbout: for confirmation of postal stampQuestion/remark: Is it true that the Netherland Government has issued a postal stamp on an Indian Actor Manoj Tiwari? if it is true then plz send me the image of the postal stamp.

मनोज तिवारी के नाम पर डाक टिकट जारी होने की बात asatya

Hello Friends,
कुछ दिनों पहले एक समाचार आई की एक भोजपुरी अभिनेता मनोज तिवारी के सम्मान मी हॉलैंड सरकार ने डाक टिकट जारी किया है
यह अत्यन्त ही अश्याचार्यजनक है कि जिस देश मे अंग्रेजी तक का कोई सम्मान नही वहां भोजपुरी गायक जिसकी न तो कोई पहचान है और न ही अस्तित्व। इस विषय मे मैंने हॉलैंड सरकार से रिपोर्ट माँगा तो वहां की सरकार ने साफ साफ कहा है कि मनोज तिवारी के नाम पर कोई डाक टिकट जारी नही किया गया है। यह बात महत्वपूर्ण है कि मनोज तिवारी ने असत्य अफवाह फैला कर बिहार और उत्तरप्रदेश की जनता के साथ मजाक किया है। इसके लिए उन्हें कभी माफ नही किया जा सकता.